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बुधवार, 17 मई 2017

कुसुम-काय कामिनी.....

कुसुम-काय कामिनी दृगों में जब मदिरा भर आती है
खोल अधर पल्लव अपने,मधुमत्त  धरा कर जाती है

कंचन वदन षोडसी जब,कटि पर वेणी लहराती है
पौरुष प्रभुता को भुजंग की,क्षमता से धमकाती है

श्वास सुरभि से वक्षस्थल के,काम कलश सहलाती है
द्रष्टि  काम में भ्रमर  भाव ,जागृति  करके भरमाती है

खुले केश अधखुले नयन में,नींद लिये बलखाती है
रक्त वर्ण अधरों से अपने ,पुरुष दम्भ पिघलाती है

प्रणय प्राश में बांध प्रभा को,विभा सदा इठलाती है
कभी केलि उसके संग करती,कभी उसे दुलराती है

पुरुष प्रकृति का अंश, त्रिया सम्पूर्ण सृष्टि कहलाती है
सृष्टि  कर्म में  देह  धर्म  का , मर्म  उसे  समझाती है

विक्रम

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