Click here for Myspace Layouts

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

साथी दूर विहान हो रहा

 रवि रजनी का कर आलिंगन
 अधरों को दे क्षण भर बन्धन 

 कर पूरी लालसा प्रणय की, मंद-मंद मृदु गान कर रहा 

 साथी दूर विहान हो रहा 

 अपना सब कुछ आज लुटाकर
 तृप्ति  हुयी  यौवन सुख  पाकर 

 शरमाई रजनी से रवि को, प्रेम भरा प्रतिदान मिल रहा 

 साथी दूर विहान हो रहा

 रजनी पार क्षितिज के जाती 
 आँखों   से आँसू  छलकाती 

 झरते आँसू पोछ किरण से, रवि रजनी का मान रख रहा 

 साथी दूर विहान हो रहा 

 विक्रम

सोमवार, 12 नवंबर 2018

तुमने पूछा
कौन हैं हम आपके
शब्द और प्रश्न
सरल और सीधे हैं
उत्तर कठिन
जटिल है अभिब्यक्ति
भाषा और भावनाओं से
यह भी बधें होते
सीमाओं के दायरे में
सुनो
जानना ही चाहती हो
तो किसी -
पहाड़ी नदी के कलकल में
बाँसुरी के स्वर-लहरियों में
टूटते तारों की चमक में
सूर्य की पहली किरण में
मदिर बयारों में
किसी मासूम की हँसी में
मिल जाएगा
 प्रश्न का उत्तर
कोशिश करके देखो
दिखाई पड़ जाऊँगा तुम्हारे ही अंदर
थामें तेरी असीम भुजाओं को
एकाकार होती चन्द्र की धवल रश्मियों में
तुझमे ही जन्मा
तुझमें ही खेला
तुझमे  ही पला
तुझमे विलीन हो जाऊँगा
न मैं था
न मैं हूँ
न मैं रहूंगा
तुम थी
तुम हो
तुम रहोगी
और मैं तुझमे

विक्रम

शनिवार, 22 जुलाई 2017

दर्द गाढ़ा हो रहा है.....

दर्द गाढा  हो  रहा  है, आसमां  बदरंग है
टूटती हर साँस की,आशा अभी सतरंग है 

तुम कभी मिलने न आना,मौज का सागर नहीं
दो  किनारों  का यहाँ बस, दूर ही  का संग है 

दर्द  को आगोश  में लेकर सदा  सोता रहा 
अब ख़ुशी के साथ पर,मेरा नजरिया तंग है 

रात का घूँघट उठा कर,क्या किया मैने यहाँ 
टूटते  तारों से  निकली, रोशनी  से  जंग  है 

जर्रे -जर्रे  में  तुम्हारे , नूर  की   चर्चा   बड़ी
सबको छलने का तुम्हारा,कौन सा यह ढंग है 

विक्रम

बुधवार, 17 मई 2017

आज फिर कुछ खो रहा हूँ.....

आज फिर कुछ खो रहा हूँ

करुण तम  में है विलोपित
हास्य से हो काल कवलित

अधर में हो सुप्त,सपनों से बिछुड़ कर सो रहा हूँ

आज फिर कुछ खो रहा हूँ

नग्न  जीवन  है प्रदर्शित
काल के हाथों विनिर्मित

टूटते हर खण्ड का,चेहरा यहाँ मै हो रहा हूँ

आज फिर कुछ खो रहा हूँ

आज से है कल  हताहत
अब कहाँ जाऊँ तथागत

नीर से मै नीड़ का,निर्माण करके रो रहा हूँ

आज फिर कुछ खो रहा हूँ

विक्रम

अपनी तृष्णा से जलते हैं....

अपनी तृष्णा से जलते हैं

विष -दंश भरे  पथ में  चलके
सत्-असत् ज्ञान में जड़ बनके

पुष्पों की मृदूता में खोकर कुछ काटें ही तो चुनते हैं

अपनी तृष्णा से जलते हैं

नश्वर जीवन  की  चाह लिये
बस कल्पद्रुम की आश किये

इस कर्महीन सुख में रहकर कितना खुद को ही छलते हैं

अपनी तृष्णा से जलते हैं

संयम और संतुलन तजके
कर्म यज्ञ के पथ से हटके

मन कल्पित आमोद सदन में चीर हरण अपना करते हैं

अपनी तृष्णा से जलते हैं

विक्रम

तन्हाई के इस आलम में ....

तन्हाई  के    इस  आलम  में ,खामोश  तरानें  गाते  हैं
यादों के भंवर में फस करके,कुछ अपने मिलने आते हैं

ऐ वक्त जरा तुम थम जाओ,थोडा मुझ पर एतबार करो
मेरी  परछाई  भटक  रही  ,उसको  जाकर हम लाते हैं

खामोश निगाहें थम करके,जब भी बरसीं जम कर बरसीं
उसके अश्कों  के संग  जाने, कितने  चेहरे  बह  जाते हैं

न  दर्द  नया न प्रीत नई,न ये दुनिया की रीत नई
दर्पण  के टूटे टुकड़ों  में, अपना चेहरा ही पाते  हैं

मै भटक रहा इन राहों में मंजिल की मुझे पहचान नहीं
फिर भी चलने की चाहत में,हर मोड़ पे ठोकर खाते हैं

विक्रम

चलो सुखी फिर से हो जाएँ.........



चलो सुखी फिर से हो जाएँ

मृदुल भाव से देती ताना
कोई भूला  गीत  सुनाना

जीवन के बीते लम्हों को,संग आज हम अपने पाएँ

चलो सुखी फिर से हो जाएँ

वही पुरानी बिदिंया लाना
मेरी निंदिया आज चुराना

मौसम कितने ही गुजरें, पर अधर नहीं तेरे कुम्हलाएँ

चलो सुखी फिर से हो जाएँ

सुख-दुःख से है साथ पुराना
तुम  ऐसे ही  साथ   निभाना

साँसों की इस पगडंडी से,हट कर अपनी राह बनाएँ

चलो सुखी फिर से हो जाएँ

विक्रम

झील का निर्जन किनारा.......

झील का निर्जन किनारा

मौन    होकर   बैठ   जायें
तपिस मन की कुछ बुझायें

एक क्षण ऐसा लगा क्यूँ ,अब यही मेरा सहारा

झील का निर्जन किनारा

टूटती हर  साँस ले  मै
कुछ अधूरी आश ले मै

उस अकल्पित शक्ति को बस,मौन हो मैने पुकारा

झील का निर्जन किनारा

शब्द सारे याद आये
अर्थ ही न ढूँढ  पाये

झील में उठती लहर सा,डोलता है  मन हमारा

झील का निर्जन किनारा

विक्रम 

आड़ी तिरछी रेखाओँ में ........

आड़ी तिरछी  रेखाओँ में  भाग्य ढूढते  लोग  यहॉं
पाप पूण्य की परछाई की गिनती करते लोग यहाँ

मासूमों की किलकारी अब आँचल  में ही सहम रही
शिथिल पगों से अरमानों का बोझ उठाते लोग यहाँ

कोरी चुनरी के कोरों से झर-झर आँसू टपक रहे
आँख कान को बंद कराके  ज्ञान बाटते लोग यहाँ

तृष्णा के पर लगा कबूतर  आसमान में भटक रहा
अपनी  ही छाया से  सहमें  भगते डरते लोग यहाँ

कर्म मर्म को बिन समझे ही  जीवन की कविता वाँची
स्वर्ण-कलश के रक्तिम मधु से रोज नहाते लोग यहाँ

विक्रम

जब वक्त था......

जब
वक्त था
तब
सब्र नही
जब
सब्र है
तो
वक्त नही
अजीब फंडा हैै
जिंदगी का
जब
चाह थी
तब
राह नही
जब
राह है
तो
चाह नही

विक्रम

दर्द कभी छलके.....

दर्द कभी  छलके आँखों से  उसको रोना मत कहना
प्यार बसा है हर कतरे में उससे गजल कोई लिखना

लगता  है ख़ामोश  ख़ियाबां  तेरे  चले  जाने के बाद
साँसों  में  अटके  लम्हों  के साथ मुझे है अब चलना

अब  तक जो न  कह पाये थे  आज मुझे है कह देना
तन्हाई  में  दर्द  से  बढ़कर  कोई  नही  होता अपना

नर्गिस  पर  निसार  निहां  हो  जाने की  हसरत मेरी
काश  नवाज़िश  उनकी  होती फ़ुऱ्कत में कैसा रहना

देकर  ए    ईशाद    बज़्म   में   आने   से   रोका    उसने
अब तो गम-ए-दरिया में लगता दा'इम तक मुझको बहना

विक्रम

1-ख़ियाबां=पुष्पवाटिका 2-निसार=न्योछावर करना,फेकना3-निहां=गुप्त ,परोक्ष4-नवाज़िश=कृपा,दयालुता 5-फ़ुऱ्कत=जुदाई,विरह 6-ईशाद=आज्ञा,आदेश 7-दा'इम=अनंत,स्थायी

आ, साथी


-----------------------

आ, साथी नव वर्ष मनाएं

 बीता कल अलविदा कह गया
 जो भोगा, वह  संग  रह  गया

धन्यवाद उसका भी करके,चिर-वसंत के स्वप्न सजाएं

आ, साथी नव वर्ष मनाएं

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा
कैसा होगा  साथ हमारा?

दीप नये नव-आशाओं के, आ तेरे संग आज जलाएं

आ साथी नव वर्ष मनाएं

सब कुछ खोकर जीने वाला
जैसे   हो,  कहनें  ही  वाला

अतुल  वेदनाएँ जीवन में, फिर भी  मंगल-गीत लुभाएं

आ, साथी नव वर्ष मनाएं

विक्रम

प्यार जब......

प्यार जब आँसू बनकर छ्लक जाता है
मोतियों  की  तरह  वो चमक  जाता है

थोडा रुसवा किया  थोडा रुसवा हुए
मुझसे मिल के वो थोडा बहक जाता है

हम  फ़िदाई   हुए  उसने  फ़त्वा  दिया
उसकी ज़िन्दां में दिल ये चहक जाता है

पारदारी  किसी  की  मैं  करता  नही
उसकी साँसों से आलम महक जाता है

जब  पशेमान   फ़ाख़िर   परस्तिश   करे
उससे ज़ाबित का दिल भी धड़क जाता है

विक्रम

1-फ़िदाई = प्रेमी 2- फ़त्वा= न्यायिक  आदेश 3-ज़िन्दां =कारागार 4- पारदारी = पक्षपात 5- पशेमान= लज्जित 6- फ़ाख़िर = अभिमानी 7-परस्तिश = आराधना ,पूजा 8-ज़ाबित = स्वामी , अधिकारी

कुसुम-काय कामिनी.....

कुसुम-काय कामिनी दृगों में जब मदिरा भर आती है
खोल अधर पल्लव अपने,मधुमत्त  धरा कर जाती है

कंचन वदन षोडसी जब,कटि पर वेणी लहराती है
पौरुष प्रभुता को भुजंग की,क्षमता से धमकाती है

श्वास सुरभि से वक्षस्थल के,काम कलश सहलाती है
द्रष्टि  काम में भ्रमर  भाव ,जागृति  करके भरमाती है

खुले केश अधखुले नयन में,नींद लिये बलखाती है
रक्त वर्ण अधरों से अपने ,पुरुष दम्भ पिघलाती है

प्रणय प्राश में बांध प्रभा को,विभा सदा इठलाती है
कभी केलि उसके संग करती,कभी उसे दुलराती है

पुरुष प्रकृति का अंश, त्रिया सम्पूर्ण सृष्टि कहलाती है
सृष्टि  कर्म में  देह  धर्म  का , मर्म  उसे  समझाती है

विक्रम

तन्हाई में मै गाता हूँ.....

तन्हाई में मै गाता हूँ

यादों  के  बादल   जब आते
मदिर-मदिर रस हैं  बरसाते

शीतल मंद पवन के संग मै,अक्षय सुधा पीने जाता हूँ

तन्हाई में मै गाता हूँ

ज्वार मदन के जब हैं आते
मादक  सपनें  देकर  जाते

मै भी कुंज,प्रणय उपवन से ,सौरभ सुमनों के लाता हूँ

तन्हाई में मै गाता हूँ

स्वप्न सदा छलने को आते
अंर्तमन  को    हैं   भरमाते

तब करके अंत्येष्टि ह्रदय की ,परम सुखी मै हो जाता हूँ

तन्हाई में मै गाता हूँ

विक्रम

बड़े खामोश लम्हें हैं .....

बड़े   खामोश लम्हें हैं जरा  चुपके से आ  जाना
तेरे साँसों की सरगम पर मुझे कोई गजल गाना

अज़ल  से  आरज़ू  मेरी  तू मेरे  बज़्म  में  आए
बड़ी मासूम हसरत है जरा घर से निकल आना

तेरे चिलमन पे जा करके मेरी नजरें ठहर जाती
बड़ा  नादाँ  है दिल मेरा  न तू  आए न  ए माना

मेरा  पयाम   ले  करके  हवाएँ  रोज  जाती   हैं
दानिस्ता है बहुत मुश्किल तेरे दर पर पहुच पाना

मैं तेरे गेसुओं  की इस घनी  सी छांव में  आकर
कहा दिल से धड़क करके मुझे मत होश में लाना

विक्रम

वर्षा-बूँदों की ये लोरी .......

वर्षा-बूँदों   की  ये  लोरी

पावस रातों की ये छोरी
तन्हाँ-तन्हाँ  कोरी-कोरी

मेरे मन आँगन बरस-बरस,क्यूँ छेड़ रही श्यामल गोरी

वर्षा-बूँदों    की   ये  लोरी

है रात  समंदर  का  आँचल
जाये भी कहाँ ये मन-पागल

आलिंगन  में   लेकर  उसको, सहलाती  तन्हाई  मेरी

वर्षा - बूँदों  की   ये   लोरी

घन  का घमंड  जब इतराता
उर मथकर कंठों तक आता

लहरों में मचलते यौवन से,बह जाए न आशा की डोरी

वर्षा-बूँदों   की   ये  लोरी

विक्रम 

नया चित्र तू बना चितेरे......

नया चित्र तू बना चितेरे

शून्य श्याम नव अंकित कर दे
अणु विहीन आलोकित  कर दे

सृष्टि और सृष्टा दोने के,भेद मिटाना आज चितेरे

नया चित्र तू बना चितेरे

अहम् और त्वम् नहीं दिखाना
पथिक  पंथ दोनों  बन  जाना

जीवन मरण संधि रेखा ही,नहीं बनाना आज चितेरे

नया चित्र तू बना चितेरे

जड़, चेतन, चेतन,जड़ रखना
भूत भविष्य विलोपित करना

अंतहीन काया की छाया,नही दिखाना आज चितेरे

नया चित्र तू बना चितेरे

विक्रम

My young friend.....

My young friend
In the journey of life
Many people,meet,would lost
You have to continue journey
Without stopping tired
For loved ones
For your dreams,what you have seen
You have to fulfill those dreams
For themselves
For those who love you
Travel is not easy
Even deceived in this way?
Just listen to the voice of your spirit
Who taught you to walk to their opinion
Tomorrow is yours
You can touch the sky
My prayers are with you
Every happiness in the world is yours
--------------------
VIKRAM SINGH
(twitter में स्पेनिश फॉलोअर्स Caroline को मेरा भेजा सन्देश)

आ,साथी नव दीप जलाएँ......

आ,साथी नव दीप जलाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

दूर घ्रणा का करें अँधेरा
प्रेम राग का रहे  बसेरा

युग-युग की वेदना मिटा दे,ऎसी कोई राह बनाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

देवगगन में  अब  हम जाएँ
नया दिवाकर ले कर आएँ

तृष्णा के घन अँधियारे को,आ उससे ही दूर भगाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

निज विलास से  बाहर आएँ
नर नारायण फिर मिल जाएँ

किरण पुंज प्रज्ञा में चमके,भेद अंनत सुलझ सब जाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

विक्रम

इन भीगी भीगी पलकों में.....

इन भीगी भीगी पलकों में,खामोश तराना है
सुन  तेरे  मेरे  दिल  का ए,मासूम फसाना है

तुम चुपके से जो आये,मेरी थम सी गई साँसे
तेरे  चंचल   नयनों   में ,  नादान   बहाना   है

देखो चाँद नही आया,अब तुम ही ठहर जाओ
इस रात की शबनम को ,पलकों पे  सजाना है

चाहे थम जाएं ये पल छिन,या सदियां गुजर जाएं
हमें  रश्म  जुदाई  की , इस  जग   से  मिटाना  है

न कल का पता तुझको,न कल से गिला मुझको
अब  तेरे  मेरे अधरों  को ,बस प्रीति निभाना  है

विक्रम

समय ठहर उस क्षण है जाता...

समय ठहर उस क्षण है जाता

ज्वार मदन का  जब है आता
रश्मि-विभा में रण ठन जाता

तभी उभय नि:शेष समर्पण,ह्रदयों का उस पल हो पाता

समय ठहर उस क्षण है जाता

श्वास सुरभि सी आती जाती
अधरों से मधु रस छलकाती

आलिंगन आबद्ध युगल तब,प्रणय पाश में बँध सकुचाता

समय ठहर उस  क्षण है जाता

कुसुम केंद्र भेदन क्षण आता
मृदुता को,  कर्कशता  भाता

अग्नि शीत के बाहुवलय में,अर्पण अपनें को कर आता  

समय ठहर उस  क्षण है जाता  

विक्रम

मौन हो कितने मुखर हम हो गए....

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

 शब्द  मेरे  भाव  तेरे   हो  गए
 इस अनोखे मेल में हम खो गए

नव रचित इस गीत में होकर मगन,प्राण संज्ञा शून्य करके सो गए

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

एक अलसाई हुई सी आस थी
वेदना से युक्त कैसी प्यास थी

एककर  संवेदनाएँ  प्राण  की, प्रणय  के  नव  बीज  जैसे  बो गए

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

जीत रक्तिम सुयश का क्या अर्थ है
शुष्क सरिता की तरह ही व्यर्थ  है

अहम् के हाथों सृजित पथ तोड़कर,आज तृष्णा हीन सुख में खो गए

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

विक्रम 

दिन हौले-हौले ढलता है...



दिन हौले-हौले ढलता है

बीती  रातों के ,कुछ  सपने
सच करनें को उत्सुक इतने

आशाओं के गलियारे में,मन दौड़-दौड़ के थकता है

दिन हौले-हौले ढलता है

पिछले सारे ताने -बाने
सुलझे कैसे ये न जानें

हाथों में छुवन है फूलों की,पर पग का गुखरु दुखता है

दिन हौले-हौले ढलता है

दिन के उजियाले में जितने
थे मिले यहाँ बनकर अपने

जब शाम हुई सब चले गये ,सूनापन कितना खलता है

दिन हौले-हौले ढलता है

विक्रम 

क गया हूँ जिंदगी की मार से......

थक गया हूँ जिंदगी की मार से
बात थोडा कीजिए  न प्यार से

रूबरू होकर भी तन्हाँ  रह  गए
अब कोई शिकवा नही है यार से

फिर नई  राहों में चलकर  देख लूँ
कितना मुश्किल जीतना है हार से

कारवाँ जब टूट करके  है बिखरता
ख़्वाब बह जाते  समय की धार से

बंद कर ली है पलक इस आश से
शायद कोई आ रहा  उस पार से

विक्रम 

ऋतु वसंत दिग्भ्रमित कर रहा.......

ऋतु वसंत दिग्भ्रमित कर रहा

ये  मेरा  अतीत   ले  आता
ह्रद हिलोर करने लग जाता

कल्प पाँखुरी खोल ह्रदय की,पुष्प मृदुल नव-राग भर रहा

ऋतु वसंत दिग्भ्रमित कर रहा

सुरभि सुमन नव प्राण जगाते
मदन भाव  मन  में भर  जाते

कर अतुलित श्रृंगार सृष्ट्रि का,उर तृष्णा में धार धर रहा

ऋतु वसंत दिग्भ्रमित कर रहा

समय  चक्र तब  है समझाता
महाशून्य का शिविर दिखाता

मौन नदी के तट पर आकर,क्यूँ  सच से तू  आज डर रहा

ऋतु वसंत दिग्भ्रमित कर रहा

विक्रम 

इश्क़ पे इल्लत लगा.......

इश्क़ पे  इल्लत लगा  इश्रत मनाने  आ गए
गोया अपने आपको आदिल बताने आ गए

इत्तिका  इताब  का  लेते   यहाँ  जो  लोग  हैं
क़ब्ल को कर ख़ाक वो खुत्बा सुनाने आ गए

आह से इख्लास का  इज़्हार कैसे  हो गया
अन्जुमन में सब मुझे कातिल बनाने आ गए

बस जरा चिलमन से अपने देख ले तू इम्तियाज़
नाखुदा  की  राह  में  काफिर  जमानें   आ गए

उस बुते-काफिर से मिलकर वो खुदी में खो गया
इक निशेमन  तोड़कर  महफिल  सजाने  आ गए

विक्रम


1-इल्लत=दोष2-इश्रत=आनंद  3आदिल=न्यायपूर्ण,नेक 4-इत्तिका=सहारा 5-इताब=क्रोध6-क़ल्ब=दिल,आत्मा 7-खुत्बा=भाषण,धर्मोपदेश 8-इख्लास=प्रेम 9इम्तियाज़=अंतर,फर्क 10-नाखुदा=मल्लाह,पार लगाने वाला 11-बुते-काफिर=अति खूबसूरत औरत 12-खुदी=घमंड 13-निशेमन=आशियाना.

गगन का ......

गगन का पहला वो तारा

एक झिलमिल झलक देता
नयन  से  फिर  दूर  होता

कह रहा जैसे निशा से, तीर रवि को मैंने मारा

गगन का पहला वो तारा

रवि तभी करता समर्पण
निशा  को  देता निमंत्रण

लालिमा की खींच चूनर,कर रहा नभ से किनारा

गगन का पहला वो तारा

रात्रि  ने  घूँघट  उठाया
दीप नव नभ में जलाया

खो गया इस भीड़ में,लगता मुझे जो सबसे प्यारा

गगन का पहला वो तारा

विक्रम

थोड़ी खुशियाँ.....

थोड़ी खुशियाँ थोड़े से गम थोड़े से अरमान है          
बीते लम्हें  कभी न  लौटें  ऐसे ये  मेहमान  हैं

तन्हाई का दर्द दिलों की पूँजी जब बन जाता है
चुपके-चुपके रोने पर  भी होता बहुत  गुमान है

लम्बी राहें थोड़ी साँसे पग जल्दी थक जाते हैं
खींच  लकीरें  राहें  छोटी  करते वो नादान हैं

खुशियाँ चपल कपोती सी जब भी आँचल में आती हैं
चन्द पलों के  खातिर  कैसे  डिग  जाता  ईमान है

वर्षा की लोरी से जब कोरी चुनरी  सो जाती  है
बन्द पलक के अंदर सजती सपनो की दुकान है

विक्रम

महाशून्य से......

महाशून्य से ब्याह रचायें

क्रिया- कर्म से  ऊपर  उठ  कर
अहम्  और  त्वम् यहीं  छोड़कर  

काल प्रबल के सबल द्वार को,तोड़ नये आयाम बनायें

महाशून्य से व्याह रचायें

स्वाहा और स्वास्ति में अंतर
भ्रमित  रहा मन  यहाँ निरंतर

माया से  विभ्रांत चेतना को अवचेतन पथ पर लायें

महाशून्य से व्याह रचायें

निर्गुण और सगुण मिल जायें
महामौन  जब  पास   बुलायें

दृगांचल अनंत हो जाये , प्रिय जब  मुझसे नैन मिलायें

महाशून्य से ब्याह रचायें

विक्रम
(आज जीवन यात्रा के 63 वर्ष पुरे करने  पर😊)

आ मृग-जल से...

आ,मृग -जल से प्यास बुझाएं

कहाँ गई मरकत की प्याली
द्रोण-कलश भी  मेरा खाली

चिर वसंत-सेवित सपनों में,खोकर शायद मधु-रस पाएं

आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं

गिर निर्झर जैसे हो कहता
समय अनवरत बहता रहता

मन कल्पित आकांक्षित गृह में,रुक अतीत से हाथ मिलाएं

आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं

है अतीत इतना  ही कहता
वर्तमान ही जीवित रहता

सासों में अटके जीवन से,जन्म-मरण के प्रश्न चुराएं

आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं

विक्रम

क्यूँ तुम मन्द.....

क्यूँ तुम मंद-मंद हँसती हों

मधुबन की हों चंचल हिरणी
बन  बैठी  मेरी  चित- हरणी

कर तुम ये मृदु हास , मेरे जीवन में कितने रंग भरती हों

क्यू तुम मंद-मंद हँसती हों

तुम हों  मैं  हूँ  स्थल  निर्जन
बहक न जाये ये तापस मन

अपने नयनो की मदिरा से, सुध बुध क्यू मेरे हरती हो

क्यूँ तुम मंद मंद हँसती हो

प्यार भरा हैं तेरा  समर्पण
तुझको मेरा जीवन अर्पण

मेरे वक्षस्थल में सर रख क्याँ उर से बातें करती हों

क्यूँ तुम मंद मंद हँसती हों

विक्रम

तुम्हारे जाने के बाद......

तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारे न होने की अनुभूति
ले आई मुझे
बीते लम्हों में
यह जानते हुए
नही हो तुम
न जाने क्यूँ -
याद आ रहा है
तुम्हारी पलकों का कँपना
खुलना झँपना
हाँ याद है
थरथराते होंठो की छुवन
मुस्कराती आँखों के अनकहे कथन
जो बिखरे हैं,यहीं कहीं
मेरे आस-पास
मैं जानता हूँ तुम नही हो
मैं मानता हूँ तुम हो
हम मिलते हैं
प्रतिपल प्रतिदिन
सुनहरी ओस कणों में
दरिया किनारों में
शाम की शांत हवाओं में
संगीत की स्वर लहरियों में
रात्रि के टूटते तारें में
हम मिलते हैं न

विक्रम 

मेरा कुसूर क्या यहाँ.........

मेरा  कुसूर  क्या  यहाँ  आलिम  बताइये
आशुफ़्ता करके बज़्म से मुझको न जाइये

मेरे  अज़ीज़ मैं  हूँ  अजब से  अज़ाब में
अब्तर मुझे अब्सार से करके दिखाइये

ख़ुत्बा दिया  खुदी का  मेरी एक  न सुनी
गुलशन उजाड़ करके न गर्दिश को लाइये

नुक्ताबीं नागवार है  सबकी  निगाह  में
आकर जरा फ़िगार को नादिर बनाइये

दिल में गिरह लगा के गिरिया न कीजिये
मेरे  फ़िदाई  फ़ितरत  में  फत्वा  लगाइये

विक्रम

बुधवार, 25 जनवरी 2017

जन गण मन अधिनायक

जन गण मन अधिनायक

गण का तंत्र, तंत्र के गण से
आहत मन पूछे जन-जन से

राष्ट्रगान में अस्तुति जिसकी,भला कौन वह लायक

जन गण मन अधिनायक

वह  शुभ नामे कब  जगता  है 
कब जन मन की वह सुनता है 

कब आशीष देता है सबको,बन महान सुखदायक

जन गण मन अधिनायक

पगड़ी छत्र चंवल बल्लम से
पश्चिम  के  गोरे  आदम   से

मुक्ति दिलाकर कहाँ गये सब,धीर वीर जननायक

जन गण मन अधिनायक

विक्रम

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

सोमवार, 21 जुलाई 2014

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

 शब्द  मेरे  भाव  तेरे   हो  गए 
 इस अनोखे मेल में हम खो गए 

नव रचित इस गीत में होकर मगन,प्राण संज्ञा शून्य करके सो गए

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

एक अलसाई हुई सी आस थी
वेदना से युक्त कैसी प्यास थी 

एककर  संवेदनाएँ  प्राण  की, प्रणय  के  नव  बीज  जैसे  बो गए 

मौन हो कितने मुखर हम हो गए

जीत रक्तिम सुयश का क्या अर्थ है
शुष्क सरिता की तरह ही व्यर्थ  है

अहम् के हाथों सृजित पथ तोड़कर,आज तृष्णा हीन सुख में खो गए 

मौन हो कितने मुखर हम हो गए 


विक्रम 

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

दर्द गाढ़ा हो रहा है,आसमां.......

दर्द  गाढ़ा  हो रहा  है, आसमां  बदरंग है 
टूटती हर सांस की आशा अभी सतरंग है 

तुम कभी मिलने न आना,मौज का सागर नहीं 
दो  किनारों  का यहाँ बस, दूर ही  का संग है

दर्द को आगोश में लेकर सदा सोता रहा 
अब ख़ुशी साथ पर,मेरा नजरिया तंग है 

रात का घूँघट उठा कर,क्या किया मैने यहाँ
टूटते  तारों  से निकली, रोशनी  से  जंग  है 

जर्रे- जर्रे   में  तुम्हारे , नूर   की  चर्चा   बड़ी 
सबको छलने का तुम्हारा,कौन सा यह ढंग ह

विक्रम 

बुधवार, 25 जून 2014

नया चित्र तू बना चितेरे


नया चित्र तू बना चितेरे

शून्य श्याम नव अंकित कर दे 
अणु विहीन आलोकित  कर दे

सृष्टि और सृष्टा दोने के,भेद मिटाना आज चितेरे

नया चित्र तू बना चितेरे

अहम् और त्वम् नहीं दिखाना
पथिक  पंथ दोनों  बन  जाना

जीवन मरण संधि रेखा ही,नहीं बनाना आज चितेरे

नया चित्र तू बना चितेरे

जड़, चेतन, चेतन,जड़ करना
भूत भविष्य विलोपित करना

अंतहीन काया की छाया,नही दिखाना आज चितेरे

नया चित्र तू बना चितेरे


विक्रम


रविवार, 22 जून 2014

झील का निर्जन किनारा

झील का निर्जन किनारा

मौन   होकर    बैठ   जायें
तपिस मन की कुछ बुझायें 

एक क्षण ऐसा लगा क्यूँ,अब यही मेरा सहारा

झील का निर्जन किनारा

टूटती हर साँस  ले  मै                                             
कुछ अधूरी आश ले मै

उस अकल्पित शक्ति को बस,मौन हो मैने पुकारा


झील का निर्जन किनारा

शब्द सारे याद आये
अर्थ ही न ढूँढ  पाये

झील में उठती लहर सा,डोलता है मन हमारा

झील का निर्जन किनारा


विक्रम



बुधवार, 15 जनवरी 2014

आप इतना यहाँ पर न इतराइये


आप  इतना यहाँ  पर न इतराइये
चंद सासों  की राहें सभल जाइये
अज़नबी मान करके  कहाँ जा रहे
आपको भी यहाँ हमसफर चाहिये

जख्म लेकर यहाँ मै तो जीता रहा
जहर मिलता रहा जहर पीता रहा
जिंदगी  के  तजुर्बे  बड़े  ख़ास  हैं
रुबरु  होने  उनसे   चले   आइये

एक  मासूम  के  पास  जाना  कभी
प्यार से उसके गालों को छूना कभी
उसके मुस्कान में है  जहाँ की ख़ुशी
अपने दामन में भर  कर उन्हें लाइये

जर्रे- जर्रे  में  जिसका  यहाँ  नूँर   है
पास   होते   हुये   भी   बहुत  दूर  है
दर्द का  एक  कतरा  किसी  दीन  से 
माग   करके   उसी   में  उसे   पाइये

विक्रम 



शनिवार, 11 जनवरी 2014

कुसुम-काय कामिनी द्दगों में.......



 कुसुम-काय कामिनी दृगों में जब मदिरा भर आती है
खोल अधर पल्लव अपने, मधुमत्त  धरा कर जाती है

कंचन वदन षोडसी जब,कटि पर वेणी लहराती है
पौरुष प्रभुता को भुजंग की,क्षमता से धमकाती है

श्वास सुरभि से वक्षस्थल के,काम कलश सहलाती है
द्रष्टि  काम  में,भ्रमर  भाव , जागृति  करके भरमाती है

खुले केश अधखुले नयन में,नींद लिये बलखाती है
रक्त वर्ण अधरों से अपने ,पुरुष दम्भ पिघलाती है

प्रणय प्राश में बांध प्रभा को,विभा सदा इठलाती है
कभी केलि उसके संग करती,कभी उसे दुलराती है

पुरुष प्रकृति का अंश,त्रिया सम्पूर्ण सृष्टि कहलाती है
सृष्टि  कर्म  में  देह  धर्म  का , मर्म  उसे  समझाती है

विक्रम



बुधवार, 8 जनवरी 2014

अनाडी बन के आता,खिलाड़ी बन के जाता है



अनाडी बन के आता है,खिलाड़ी बन के जाता है
लगे  जो  दाग दामन में,उन्हें सब  से  छुपाता है

अगर इंसान  ये  होता, कभी  का मर  गया  होता
फकत दो वक्त की रोटी में,ये क्या-क्या मिलाता है

मेरा हमर्दद बन करके,मेरे ही आँख का आंसू
चुरा  करके  उन्हें बाजार  में,ये बेच  आता है

कभी उम्मीद बन जाता,कभी संगीन बन जाता
मेरी  ही  जेब पर हर  वक्त ये,पहरा  लगाता है

न  ये जाने  न  मैं  जानूं , न ये माने न  मैं  मानूं
वही किस्से यहाँ आकर,मुझे हर दिन सुनाता है

मैं अपनी भूख से डरता नहीं,बस नींद से डरता
मेरे सपनों में आ करके ,मेरी कमियां गिनाता है

है इसके शब्द में जादू,ये जादू का असर यारा
मेरे  ही  हाथ  से  ये क़त्ल ,मेरा  ही कराता है

कहीं पर आम बन जाता,कहीं पर ख़ास हो जाता
सड़क  पर  हर  खड़ा  बंदा , इसे नेता बताता है


विक्रम 




मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा



स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा

नये रूप में  तुम  भी आये
स्वप्न सुनहरे कितने लाये

समय चक्र के गलियारे में,ओंस-कणों सा साथ हमारा

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा

वर्ष पुराना जाने वाला
पी मेरे कर्मो की हाला

आज दिया मुझको तज उसने,संग रहकर भी रहा कुँआरा

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा 

खुशियों और ग़मों के साये
उनमे  हर पल,पलते  आये

छलक गया कल मेरे कर से,तेरा कल ही मेरा सहारा

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा


नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें

विक्रम

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

सूनापन कितना खलता है



सूनापन कितना खलता है

आँखों से दर्द टपकता है
होंठों से हँसना पड़ता है

दोनों की बाहें थाम यहाँ,जीवन भर चलना पड़ता है

सूनापन कितना खलता है

मझधार में मांझी  रोता है
लहरों के बोल समझता है 

है वेग तेरा भारी मुझपर,पतवार वार को सहता है

सूनापन कितना खलता है 

दिन धीरे-धीरे ढलता है
चेहरे का रंग बदलता है

इस श्वेत श्याम की छाया में,बीता कल छुप कर रहता है 

सूनापन कितना खलता है


विक्रम 

रविवार, 3 नवंबर 2013

आ,साथी नव दीप जलाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

दूर घ्रणा का करें अँधेरा
प्रेम राग का रहे  बसेरा

युग-युग की वेदना मिटा दे,ऎसी कोई राह बनाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

देवगगन में  अब  हम जाएँ
नया दिवाकर ले कर आएँ

तृष्णा के घन अँधियारे को,आ उससे ही दूर भगाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

निज विलास से  बाहर आएँ
नर नारायण फिर मिल जाएँ

किरण पुंज प्रज्ञा में चमके,भेद अंनत सुलझ सब जाएँ

आ,साथी नव दीप जलाएँ

विक्रम


दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

रविवार, 18 अगस्त 2013

साथी याद तुम्हारी आये.. . . . ...

साथी याद तुम्हारी आये

सिंदूरी संध्या जब आये 
ले मुझको अतीत में जाये

रुक सूनी राहों में तेरा ,वह बतियाना भुला न पाये

साथी याद तुम्हारी आये

मधुमय थी कितनी वो राते
मॄदुल बहुत   थी  तेरी बाते

अंक भरा था तुमने मुझको,फैलाकर नि:सीम भुजायें

साथी याद तुम्हारी आये

प्राची में ऊषा जब आये 
जानें क्यूँ मुझको न भाये

बिछुड़े हम ऐसे ही पल में,नयना थे अपने भर आये

साथी याद तुम्हारी आये

विक्रम

शनिवार, 10 अगस्त 2013

मरने की तमन्ना में. . . . . . .




मरने  की  तमन्ना  में , जीने  का बहाना  है

हर रात के  आँचल  में,ख़्वाबों का खजाना है

फुरसत से  कभी  आओ,हमराज बना   लेगें

 वह दौर क़यामत  तक, तुमसे  ही निभा देगें

दुनिया तो है दो पल की,यह साथ पुराना है

मरने  की  तमन्ना   में , जीने  का  बहाना   है

थम-थम के जो बरसे तो ,पलकों को गिले होगें

गमें-राह  में चलने के , मंजर  न   बयां    होगें

अश्कों चलन में  ही , उल्फत का  फसांना   है

 मरने  की  तमन्ना  में , जीने का  बहाना  है

इस दिल की तमन्ना को ,कुछ भी तो शिला दोगे

 इक राज बना इनको ,दामन में  छिपा  लोगे

अब रंग  बना  उनको, सपनों को सजाना  है

मरने  की  तमन्ना  में, जीने  का बहाना   है

विक्रम

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

मै अधेरों में घिरा .. . .

मै अधेरों में घिरा ,पर दिल में इक राहत सी है

 जो शमां  मैने  जलाई वह अभी महफिल में है

गम भी हस  कर झेलना ,फितरत में दिल के है शुमार

 आशनाई  सी मुझे ,होने लगी  इनसे यार

 महफिलों में चुप ही रहने की मेरी आदत सी है

मै अधेरों में घिरा पर  दिल में इक राहत सी है

एक दर पर कब रुकी है,आज तक कोई बहार

गर्दिशों में हूँ घिरा,कब तक करे वो इंतज़ार

जिंदगी को मौसमों के दौर की आदत सी  है

मै अधेरों में घिरा पर दिल में इक राहत सी है


अपना  दामन  तो  छुड़ा कर जाना है आसां यहाँ

गुजरे लम्हों से निकल कोई जा सकता कहा

कल  से  कल को जोड़ना भी आज की आदत सी  है

 मै अधेरों में घिरा पर दिल में इक राहत सी है

विक्रम

रविवार, 28 जुलाई 2013

vikram7: आ कुछ दूर चलें,फिर सोचे.......

vikram7: आ कुछ दूर चलें,फिर सोचे.......: आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें अमराई की घनी छाँव में नदी किनारे बधीं नाव में बैठ निशा के इस दो पल में,बीते लम्हों की हम सोचें आ कुछ दूर चलें,फ...

रविवार, 2 जून 2013

vikram7: मैनें अपने कल को देखा....

vikram7: मैनें अपने कल को देखा....: मैनें अपने कल को देखा उन्मादित सपनों के छल से आहत था झुठलाये सच से तृष्णा की परछाई से, उसको मैने लड़ते देखा मैने अपने कल को देखा वर्त्तम...

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

मै किसको अब यहाँ बुलाऊँ,



मै किसको अब यहाँ बुलाऊँ
 टूटे तरू पातों के जैसा
मूक पड़ा मै अविचल कैसा


अपने ही हाथो से घायल,हो बैठा यह किसे बताऊँ


मै किसको अब यहाँ बुलाऊँ
 मेरे मौंन रुदन से होती
भंग निशा की यह नीरवता

सुन ताने प्रहरी उलूक के ,मै जी भर कर रो न पाऊँ


   मै किसको अब यहाँ बुलाऊँ  
मेरा कौन यह जो आये
आ मेरे दुःख को बहलाये

खुद अपना प्रदेश कर निर्जन,क्यू अपनो की आस लगाऊँ


मै किसको अब यहाँ बुलाऊँ

विक्रम,

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

vikram7: साथी दूर विहान हो रहा........

vikram7: साथी दूर विहान हो रहा........: साथी दूर विहान हो रहा रवि रजनी का कर आलिंगन अधरों को दे क्षण भर बन्धन कर पूरी लालसा प्रणय की, मंद-मंद मृदु हास कर रहा साथी दूर विहान हो रह...

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

दिन हौले-हौले ढलता है...

दिन हौले-हौले ढलता है

बीती  रातों के ,कुछ  सपने
सच करनें को उत्सुक इतने


आशाओं के गलियारे में,मन दौड़-दौड़ के थकता है

दिन हौले-हौले ढलता है

पिछले सारे ताने -बाने
सुलझे कैसे ये जानें


हाथों में छुवन है फूलों की,पर पग का गुखरु दुखता है

दिन हौले-हौले ढलता है


दिन के उजियाले में जितने
थे मिले यहाँ बनकर अपने


जब शाम हुई सब चले
ये ,सूनापन कितना खलता है

दिन हौले-हौले ढलता है

विक्रम

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें........


आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें
अमराई की घनी छाँव में
नदी किनारे बधीं नाव में
बैठ निशा के इस दो पल में,बीते लम्हों की हम सोचें
आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें
मन आंगन उपवन जैसा था
प्रणय स्वप्न से भरा हुआ था
तरुणाई के उन गीतों से,आ अपने तन मन को सीचें
आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें
स्वप्नों की मादक मदिरा ले
मलय पवन से शीतलता ले
फिर अतीत में आज मिला के,जीवन मरण प्रश्न क्यूँ सोचें
आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें विक्रम

बुधवार, 2 जनवरी 2013

वह फिर भी अबला कहलाती......

वह फिर भी अबला कहलाती

रचना अविराम जो करती
जीवन पथ आलोकित करती

रख नयनों में नीर ,रक्त से अपने,जग को जन है देती
 वह फिर भी अबला कहलाती

निर्बल को जो बल है देती
ममता दे निर्ममता सहती

जग उसका करता है शोषण,वह जन-जन का पोषण करती
 वह फिर भी अबला कहलाती

हर रुपों में जन को सेती
माँ,बहना,भार्या बन रहती

विस्मृ्ति कर अपने दुख सारे, जगती को सुखधाम बनाती
 वह फिर भी अबला कहलाती
vikram

शनिवार, 17 नवंबर 2012

vikram7: हमने कितना.......

vikram7: हमने कितना.......: हमने कितना प्यार किया था अर्ध्द -रात्रि में तुम थीं मैं था मदमाता तेरा यौवन था चिर-भूखे भुजपाशो में बंध, अधरों का रसपान किया था हमने क...

बुधवार, 14 नवंबर 2012

vikram7: आज फिर कुछ खो रहा हूँ ..

vikram7: आज फिर कुछ खो रहा हूँ ..: आज फिर कुछ खो रहा हूँ करुण तम में है विलोपित हास्य से हो काल कवलित अधर मे हो सुप्त, सपनो से विछुड कर सो रहा हूँ नग्न जीवन है, प्रदर्शित ...

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

vikram7: आज अधरो............

vikram7: आज अधरो............: आज अधरो पर अधर रख मधुभरी यह मौन सी शौगात मैने पा लिया है कल ह्र्दय मे उस पथिक सी थी विकलता राह जिसको न मिली हो साझ तक मे द्वार मे ... Dipawali ke hardik shubhkamnaye swikar kare. vikram

vikram7: आज अधरो............

vikram7: आज अधरो............: आज अधरो पर अधर रख मधुभरी यह मौन सी शौगात मैने पा लिया है कल ह्र्दय मे उस पथिक सी थी विकलता राह जिसको न मिली हो साझ तक मे द्वार मे ...

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

मै आवाज तुम्हे जब दूगाँ

मै आवाज तुम्हे जब दूगाँ

तुम   धीरे   से  ,न   कर   देना
कुछ पग चलके,फिर हस देना

बीत गये जो पल सजनी फिर, उनको जैसे मै पा लूगाँ 


मै आवाज तुम्हे जब दूगाँ

कुछ क्षण बाद,चली तुम आना
मृदुल  भाव   से,   देती   ताना

मै विभोर हो तरुणाई का,गीत कोई फिर से गा लूगाँ 




मै आवाज तुम्हे जब दूगाँ
 

क्या होता है, नया  पुराना
ऐसे ही तुम साथ निभाना

यादों की झिलमिल चुनरी से,मै श्रंगार तेरा कर दूगाँ

मै आवाज तुम्हे जब दूगाँ



विक्रम

बुधवार, 26 सितंबर 2012

तिमिर बहुत गहरा होता है........

तिमिर बहुत गहरा होता है

रात
चाँद जब नभ मे खोता
तारों  की  झुरुमुट मे सोता

मेरी  भी  बाहों  मे  कोई ,अनजाना  सा  भय  होता  है


 तिमिर बहुत गहरा होता है

यादों के जब दीप जलाता

उतना ही है तम गहराता

 छुप  गोदी  मे, मॆ सो जाता ,शून्य  नही  देखो  आता है

 तिमिर बहुत गहरा होता है

कही नीद की मदिरा  पाता
पी उसको हर आश भुलाता

रक्त नयन की जल धारा को, जग कैसे कविता कहता है


 तिमिर बहुत गहरा होता है
 
विक्रम
[पुन:प्रकाशित]

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

आ साथी, अब दीप जलाएँ......


आ साथी, अब दीप जलाएँ
 
लगी  निशा  होने  है, गहरी
घोर तिमिर होगा अब प्रहरी

अपनी अभिलाषाओं को फिर से,निंद्रा-पथ की राह दिखाएँ

आ साथी, अब दीप जलाएँ

है  पावस  की  रात अँधेरी
घन-बूँदों की सुन कर लोरी

शायद  नीड़- नयन में लौटे,हमसे  रुठी  कुछ  आशाएँ

आ साथी,अब दीप जलाएँ

आयेगी उषा  की लाली
नही रात ये रहने वाली

दीपशिखा की इस झिलमिल में,हम सपनों के महल सजाएँ

आ साथी,अब दीप जलाएँ
vikram

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

रात के अन्धेरे में.......



रात के अन्धेरे में
मै
अपने दर्द को
हौले-हौले थपथपा के सहला के
सुलाने का प्रयास करता रहा
और तेरी यादें
किसी नटखट बच्चे की तरह
आ-आकर
न उसे सोने देती,न मुझे सुलाने देती
मै चिडचिडाता हूँ,बिगडता हूँ
पर सच तो यह है
मै
अपने आप को,यह समझा नहीं पाता हूं
कि मेरा दर्द और तेरी यादें
अलग-अलग नहीं एक है
तू नहीं तो क्या
मेरे पास
हमारे टूटे घरौदे के
कुछ अवशेष
अभी भी शेष हैं
vikram

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

माननीय साथियो..........



 माननीय साथियो
तीन साल के अपने ब्लॉग लेखन में मुझे एक से एक अच्छी व उच्च स्तरीय  रचनाये
पढने को मिली,व आज भी उम्दा लेखको का प्रवेश ब्लॉग जगत में हो रहा है,मै अपनी पिछली  पोस्ट,  ब्लॉग बुलेटिन की पोस्ट '' अभी अलविदा न कहना ... ब्लॉग बुलेटिन ''[धीरेन्द्र जी ]के माध्यम से आप सभी के विचारों से अवगत हुआ ,मुझे पहली बार  यह एहसास हुआ कि यह ब्लॉग जगत अपनी रचनाओं को लिखने भर का मंच नही है,यह तो एक भरा पूरा परिवार है,जिससे हम एक अटूट रिश्ते के साथ जुड़े है,परिवार की भाति इसमें भी हमारे बुजुर्ग ,हम उम्र ,व युवा है. मुझसे भूल हुयी ,कि मैने इन रिश्तो  को अनदेखा कर ऐसा लिखा ,मै आप सभी से अपनी इस भूल के लिये माफी चाहता हूँ. समय मिलने पर अपने इसी ब्लॉग पर पूर्व की भाति लेखन कार्य जारी रखुगां.
क्षमा याचनाके साथ 
विक्रम सिंह

रविवार, 22 अप्रैल 2012

इस ब्लॉग की आखिरी पोस्ट ......




आदरणीय साथियो
                  नमस्कार
आज से अपने ब्लॉग विक्रम ७ में लेखन कार्य समय की कमी के कारण बंद कर रहा हूँ. बराबर लेखन व पठन कार्य न करने से एक दूरी बन जाती है,जिसे इस ब्लॉग जगत में पूरा करना मुश्किल हो जाता है. लगभग तीन  वर्षो में इस ब्लॉग के माध्यम से जो रिश्ता आप लोगो से कायम हुआ ,वह मेरे लिए अमूल्य है.व जीवन भर की यादगार, समय मिला तो फिर कभी एक नये ब्लॉग के साथ आपसे मिलने जरूर वापस आऊगां . आप सभी के लिए मेरी शुभकामना है कि इसी तरह अपने विचारों को अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगी तक पहुचाते रहें,और मुझे आशा  है की साहित्य के साथ साथ सामाजिक जागरूकता में भी आपका यह प्रयास नए मापदंड कायम करेगा, साथ ही ब्लॉग बंद  नहीं कर रहा हूँ,पठन के लिए उपलब्ध रहेगा. और समय समय में इसके माध्यम से आप लोगो की रचनाओं को पढता व 
टिप्पणी
{: भी करता रहूँगा.  मै आज अपनी वही  पुरानी रचना पोस्ट कर रहा हूँ ,जो इस ब्लॉग की प्रथम पोस्ट थी.
शुभकामनाओं केसाथ  


कारवाँ बन जायेगा,चलते चले बस जाइये
मंजिले ख़ुद ही कहेगी,स्वागतम् हैं आइये

पीर को भी प्यार  से, वेइंतिहाँ  सहलाइये
आशिकी में डूबते,उसको भी अपने पाइये

हैं नजारे ही नहीं,काफी समझ  भी  जाइये
देखने वाले के नजरों, में  जुनूँ  भी  चाहिये

बुत नहीं कोई फरिश्ते,वे वजह मत जाइये
रो रहे मासूम  को, रुक  कर ज़रा दुलराइये

टूटती  उम्मीद पे, हसते  हुये   बस आइये
अपने पहलू में नई,खुशियाँ मचलते पाइये


vikram

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

आँसू से उर ज्वाल बुझाते




आँसू से उर ज्वाल बुझाते

देह धर्म का मर्म न समझा
भोग प्राप्ति  में ऎसा  उलझा

कर्म
भोग के बीच संतुलन,खोकर सुख की आश लगाते

आँसू से उर ज्वाल बुझाते

प्रणय उच्चतर मैने माना
अमर सुधा पीने की ठाना

भोग नही बस सृष्टि कर्म
है,आह समझ उस क्षण हम पाते

आँसू से उर ज्वाल बुझाते

घनीभूत विषयों का साया
भेद समझ न इसके पाया

शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ
रह रह के मुझे रुलाते

आँसू से उर ज्वाल बुझाते

विक्रम

जीवन का सफर चलता ही रहें........








जीवन का सफर चलता ही रहें ,चलना हैं इसका काम

कहीं तेरे नाम,कहीं मेरे नाम,कहीं और किसी के नाम

हर राही की अपनी  राहें  ,हैं  अपनी  अलग  पहचान

मंजिल अपनी ख़ुद ही चुनते,पर डगर बडी अनजान

खो जाती  सारी  पहचाने, जो  किया   कहीं   विश्राम

कहीं तेरे नाम कहीं मेरे नाम,कहीं और किसी के नाम

इन राहों में मिलते रहते,कुछ अपने कुछ  अनजान

हर राही के आखों में सजे कुछ सपने कुछ अरमान

सपनों से सजी इन राहों में,कहीं सुबह हुयी कहीं शाम

कहीं तेरे नाम कहीं मेरे नाम कहीं और किसी के नाम


विक्रम[पुन:प्रकाशित]