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बुधवार, 17 मई 2017

दिन हौले-हौले ढलता है...



दिन हौले-हौले ढलता है

बीती  रातों के ,कुछ  सपने
सच करनें को उत्सुक इतने

आशाओं के गलियारे में,मन दौड़-दौड़ के थकता है

दिन हौले-हौले ढलता है

पिछले सारे ताने -बाने
सुलझे कैसे ये न जानें

हाथों में छुवन है फूलों की,पर पग का गुखरु दुखता है

दिन हौले-हौले ढलता है

दिन के उजियाले में जितने
थे मिले यहाँ बनकर अपने

जब शाम हुई सब चले गये ,सूनापन कितना खलता है

दिन हौले-हौले ढलता है

विक्रम 

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