हमारी पृथ्वी की तुलना सम्पूर्ण ब्रम्हांड में मौजूद अन्य ग्रहों से की जाय तो अति नगण्य साबित होगी। इसकी विशेषता मात्र इतनी है कि यहाँ जीवन है। इसमें मानवरूपी हमारी प्रजाति फलफूल रही है । यहाँ मौजूद अन्य जीवों से हम स्वंय को ज्यादा बुद्धिमान समझते हैं । विज्ञान के माध्यम से हम प्राकृतिक जटिलताओं को समझने में सक्षम हो रहें हैं । आध्यात्म के माध्यम से ईश्वर के रूप में संपूर्ण सृष्टि के निर्माता की कल्पना कर उसे मूर्तरूप प्रदान कर दिया है । अनेक संप्रदायों व धर्मग्रंथों के माध्यम से उसे अलग अलग नामों से विभूषित कर , अनेक पूजा पद्धतियों को प्रचलन में ला दिया है । उससे बड़ी बात यह कि हम अपनी अपनी मान्यताओं को सर्वश्रेष्ठ बताकर सदियों से धार्मिक उन्मादों के माध्यम से एक दूसरे का खून बहाते आ रहें हैं ।
क्या सच में ईश्वर है ? वह निराकार है या साकार ! ईश्वर अगर एक है तो मानव समाज में विभिन्न धर्म पद्धतियों का प्रचलन क्यों, अन्य जीवों को इसका ज्ञान क्यो नही ,ऐसे अनेक प्रश्न मन में आते जाते रहते हैं । पर हम जिस धर्म व सामाजिक पद्धति से बंधे होते हैं उसपर हमारी अटूट श्रद्धा बनी रहती है ।
कुछ वर्ष पहले जगन्नाथ मंदिर पूरी में पूजन अर्चन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । ज्ञात हुआ कि यहाँ भगवान श्रीकृष्ण का ह्रदय रखा हुआ है वह भी जीवित अवस्था में । मन से प्रश्न आया कि रामकथा तो पूर्ण है, पर जब कृष्ण का ह्रदय धरा पर मौजूद है तो भागवत कथा कैसे पूर्ण हुई । गूगल से लेकर धार्मिक गर्न्थो कथावाचकों से सच्चाई जानने का प्रयास किया । सबकी अलग अलग मान्यताओं व कथाओं से" मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना" वाली स्थिति उत्पन्न हो गई । सच्चाई जानने की उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी । अज्ञानी से ज्ञानी बनने की ऐसी सनक सवार हुई कि मैने उस जीवित ह्रदय के सम्बंध में प्रचलित विभिन्न मान्यताओं की कड़ियों को जोड़कर एक कथानक की सृष्टि कर डाली ।
"महाभारत युद्ध के समाप्ति के बाद कृष्ण के मन में राधा से मिलने की उत्कंठा उत्पन्न हुई । ब्रम्हमुहूर्त काल में द्वारिकापुरी के समुद्र तट पर सूर्योदय पूर्व की लालिमा के नयनाभिराम दृश्य का कृष्ण अवलोकन कर रहे थे तभी राधा प्रगट हुई । दोनों ने एक दूसरे को देखा । राधा पूर्ण यौवनावस्था में दृष्टिगत हो रही थी। ठीक वैसी ही जैसे निधिवन में अपनी अष्टसाखियों के साथ कृष्ण से मिलती थी । राधा के साथ उनकी तीन सखियां ललिता विशाखा चित्रा भी थी । दधीच की अंतिम अस्थि से बनी बाँसुरी जो बाल्यावस्था में शिव ने कृष्ण को दी थी वह राधा के हाथ में थी । राधा ने अति प्रेमभाव से वह बाँसुरी कृष्ण के हाथ में देकर कृष्ण की ओर देखा । कृष्ण राधा की मनोभावना को समझ असमंजस की स्थिति में आ गए, उन्होंने आश्चर्यचकित नजरों से राधा को देखा । राधा मुस्कुराती रही । अचानक कृष्ण की मुखमुद्रा में चिंता के भाव उत्पन्न हो गए । महाभारत युद्ध के दृश्य एक एक करके उनकी नजरों के सामने आते गए । अर्जुन को गीता के माध्यम से "कर्मण्येवाधिकारस्ते".. का उपदेश देने वाले कृष्ण समझ गए कि महाभारत युद्ध में उनकी भूमिका को लेकर राधा के मन में कई प्रश्न है । अन्यथा उनकी लीला के अंतिम प्रहर में प्रारंभ के प्रसंग की पुनरावृत्ति की यह कैसी इच्छा। राधा ने पुनः कृष्ण को देखा । कृष्ण के चेहरे में खेद के भाव थे । अचानक राधा ने कृष्ण के हाथ से बाँसुरी को छीन कर तोड़ दिया । कृष्ण की स्थिति उस समय किंकर्तव्यविमूढ़ वाली थी। राधा जैसे ही जाने को हुई उनकी तीनों सखियां विनय भाव से उनके सामने आ गई । राधा रुकी ,उनसे कुछ कहा और अंतर्ध्यान हो गई । तीनों सखियां कृष्ण की ओर मुड़ी और विनय भाव से देखा । आहत कृष्ण ने उनसे कुछ कहा और वह वहाँ से चली गई। अर्जुन को अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराने वाले कृष्ण समझ गए कि युद्ध में उनकी भूमिका व शक्तियों के प्रयोग से राधा संतुष्ट नही हैं । कर्म योगी को अपने अनुचित कर्मों का दंड मानवरूप में पुनः जन्म लेकर भोगना ही पड़ेगा। तभी राधा कृष्ण के साथ अपने मानवीय स्वरूप को त्याग सत्यस्वरूप में प्रवेश करेंगी । क्षण मात्र में आगे क्या होगा उसकी पटकथा कृष्ण ने सुनिश्चित कर दी । कुछ समय पश्चात बहेलिए के बाण से घायल होकर कृष्ण ने अपने शरीर का त्याग कर दिया । पर ह्रदय को अग्नि जला नही सकी । वह शरीर के अन्य अंगों की तरह पंचतत्वों में विलीन नही हुआ। "
अतः जिस दिन श्री जगन्नाथ मंदिर में मौजूद दिव्य ह्रदय में व्याप्त शक्तियों की अनुभूति सामान्य मानव को होना बंद हो जाये , हमें समझ जाना चाहिए कि कृष्ण सामान्य मानव के रूप में जन्म लेकर अपने कर्मो का प्रायश्चित कर, राधा के संग गोलोक चले गए हैं ।
विज्ञान हो या अध्यात्म कही गई बातें तर्क संगत होनी चाहिए ।अन्यथा ऐसी कथाओं और प्रसंगों का कोई औचित्य नही ।
इससे लोगों में अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता है । मानव रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन ही ईश्वर की सच्ची आराधना है ।
विक्रम
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