अर्जुन उवाचः
कामेन संमोहितं चेतो भ्रांत्या सत्यं कथं त्यजेत्।
मिथ्या मनसि संनादति तस्मात् कथं विमुच्यते ।।
अर्थ: अर्जुन पूछते हैं कि जब मन कामनाओं और भ्रांतियों से मोहित हो जाता है, तब सत्य को कैसे पहचाना जाए? और जब मिथ्या (असत्य) मन में गूंजता रहता है, तब उससे मुक्ति कैसे प्राप्त की जाए?
श्रीकृष्ण उवाचः
काममोहविनाशाय सत्यं धृत्वा समाचर।
विवेकेन मनो नादति मिथ्या तस्मात् परित्रायति।।
अर्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि काम और मोह का नाश करने के लिए सत्य को दृढ़ता से पकड़ो और उसी के अनुसार आचरण करो। विवेक (बुद्धि और समझ) से मन को शांत करो, जिससे मिथ्या का शोर खत्म हो और मुक्ति प्राप्त हो।
अर्जुन उवाचः
अज्ञानतमसावृतो नरः कर्महीनः कथं चरेत्।
मूल्यं जीवनविस्मृत्या नाशात् कथं परित्रायति।।
अर्थ: अर्जुन पूछते हैं कि अज्ञान के अंधकार में डूबा व्यक्ति, जो कर्म से विमुख है, जीवन कैसे जिए? जीवन के मूल्यों को भूलकर विनाश से कैसे बचे?
श्रीकृष्ण उवाचः
अज्ञानं तमसो मूलं कर्मयोगेन संनश्यति।
मूल्यं स्मृत्वा मनो नादति नाशात् त्रायति पाण्डव।।
अर्थ: श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं कि अज्ञान अंधकार का मूल है, और इसे कर्मयोग (निष्काम कर्म) से नष्ट किया जा सकता है। जीवन के मूल्यों को स्मरण करके मन शांत होता है, और यह विनाश से रक्षा करता है।
अर्जुन उवाचः
सत्यं करुणा क्व चास्ति भयं मे हन्ति संनादति।
आत्मज्ञानं कथं लभ्यं मोक्षमार्गः कथं चरेत्।।
अर्थ: अर्जुन पूछते हैं कि सत्य और करुणा कहां पाए जाते हैं?
मेरा भय मुझे सताता और परेशान करता है। आत्मज्ञान कैसे प्राप्त हो, और मोक्ष का मार्ग क्या है?
श्रीकृष्ण उवाचः
सत्यं करुणा यत्रास्ति तत्र मे सन्निधिः सदा।
आत्मज्ञानेन संनादति मोक्षमार्गः प्रसीदति ।।
अर्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जहां सत्य और करुणा हैं, वहां मैं (ईश्वर) सदा विद्यमान हूं। आत्मज्ञान से मन शांत होता है, और मोक्ष का मार्ग स्पष्ट हो जाता है।
अर्जुन उवाचः
वायौ सूर्ये जले त्वं च कथं नादसि सर्वदा।
विश्वं त्वयि कथं नृत्यति मार्ग कथय मे प्रभो।।
अर्थ: अर्जुन पूछते हैं कि आप (ईश्वर) वायु, सूर्य, और जल में कैसे सदा गूंजते हैं? विश्व आपमें कैसे नृत्य करता है? मुझे मार्ग बताएं।
श्रीकृष्ण उवाचः
वायौ सूर्ये जले सर्वं मयि नादति नित्यदा।
विश्वं मय्येव नादति ति मार्गं याति हि पाण्डव।।
अर्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वायु, सूर्य, जल, और सर्वत्र मैं ही नित्य गूंजता हूं। विश्व मुझमें ही नाद करता है, और यही मोक्ष का मार्ग है।
अर्जुन उवाचः
कथं तव संपूर्ण रूपं विज्ञातुं हि समर्हति।
विश्वं त्वयि कथं संनृत्यति सर्वं कथय प्रभो।।
अर्थ: अर्जुन पूछते हैं कि आपके संपूर्ण रूप को कैसे जाना जा सकता है? विश्व आपमें कैसे नृत्य करता है? मुझे सब बताएं।
श्रीकृष्ण उवाचः
आत्मज्ञानेन मे रूपं संपूर्ण सम्प्रकाशति।
विश्वं मय्येव संनृत्यति सर्वं मयि संनादति।।
अर्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मज्ञान के द्वारा मेरा संपूर्ण रूप प्रकट होता है। विश्व मुझमें ही नृत्य करता है, और सब कुछ मुझमें ही गूंजता है।
अर्जुन उवाचः
हे कृष्ण चित्तविक्लेशे शान्तिः कथं भवेत् प्रभो ।
करुणया बोधय स्वामिन् संशयं मे समाहर ॥
श्री कृष्ण उवाचः
यदा विश्वं समदृष्ट्या आत्मवत् त्वं विलोकसि ।
तदा संशयाः विलीयन्ति चित्तं शान्तिम् समाश्रति ॥
अर्थः
अर्जुन उवाचः
हे कृष्ण ! चित्त के विक्लेश में शांति कैसे प्राप्त हो, हे प्रभु? अपनी करुणा से मुझे समझाइए और मेरे संशय को पूरी तरह दूर कीजिए।
श्री कृष्ण उवाचः
जब तुम विश्व को समान दृष्टि से और आत्मा के समान देखते हो, तब सारे संशय लुप्त हो जाते हैं और चित्त शांति का आश्रय लेता है।
(मन में उत्पन्न भावों से रचित श्लोकों की प्रस्तुति
, ज्ञानी जनों से त्रुटियों पर सुझाव की अपेक्षा है)
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