कुरुक्षेत्र युद्धोत्तर श्रीकृष्ण-भीष्म संवादकालखंड की पृष्ठभूमि:
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द्वापर युग के अंत में, कुरुक्षेत्र की रणभूमि रक्तरंजित हो चुकी थी। महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ,कौरवों का सर्वनाश हुआ और पांडव विजयी हुए, किंतु विजय का यह क्षण भीष्म पितामह के लिए मृत्युशय्या पर शरों के बिछौने का प्रतीक बन गया। गंगा-पुत्र भीष्म, कुरुवंश के सर्वोच्च कुलप्रमुख,अपने अंतिम क्षणों में जीवन, धर्म, और विश्व के गहन रहस्यों पर चिंतन कर रहे थे। इस पृष्ठभूमि में, श्रीकृष्ण, जो युद्ध में पांडवों के सारथी और मार्गदर्शक थे, भीष्म के समक्ष उपस्थित हुए। भीष्म पितामह ,कृष्ण का यह संवाद न केवल एक दार्शनिक विमर्श है, अपितु द्वापर युग में नैतिक परम्पराओं के पतन से उपजे प्रश्न और विश्व की संरचना के रहस्यों को उजागर करता है।
: पितामह भीष्म एवं श्रीकृष्ण संवाद।
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श्रीकृष्ण: प्रणाम, गंगापुत्र पितामह। शरशय्या पर विराजमान आपको देख मेरा हृदय करुणा से कम्पित हो उठता है। कुशल-क्षेम पूछने का साहस नहीं जुटा पाता, किन्तु आपके सान्निध्य में मेरा चित्त जागृत हो उठता है।
भीष्म: (मुस्कुराते हुए) आइए, देवकीनंदन। आपके दर्शन से मेरे मन में शांति की लहर उठती है। मृत्यु के समीप होने पर भी मेरे हृदय में कुछ संशय गूंज रहे हैं। क्या उन्हें आपके समक्ष प्रकट करना उचित होगा?
श्रीकृष्ण: निश्चय ही, पितामह। आपके प्रश्न मेरे लिए सदा स्वागत योग्य हैं।
भीष्म: माधव, क्या आप ही इस विश्व के मूल और सर्वस्व हैं?
श्रीकृष्ण: (हल्के हास्य के साथ) नहीं, पितामह। मैं तो केवल अर्जुन का सखा और कुरुवंश का पौत्र हूं।
भीष्म: (सौम्य मुस्कान के साथ) छोड़िए, कन्हैया, यह माया। प्रस्थान से पूर्व एक संशय प्रकट करता हूं—कुरुक्षेत्र में हुआ यह संग्राम क्या धर्म के अनुरूप था?
श्रीकृष्ण: पितामह, आप किस दृष्टिकोण से विचार करते हैं?
भीष्म: पांडवों के पक्ष से।
श्रीकृष्ण: उसका उत्तर मैं कैसे दूं, गंगापुत्र? यह प्रश्न तो पांडवों से ही पूछा जाना चाहिए।
भीष्म: (आश्चर्य से) केशव, आप ऐसा कहते हैं? आपके सान्निध्य में युद्ध की सारी मर्यादाएं भंग हो गईं। कौरवों के अधर्म की चर्चा नहीं करता, परंतु पांडवों से आपके साथ होने से धर्म की रक्षा की अपेक्षा थी। श्रीराम ने कभी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया।
श्रीकृष्ण: (गंभीर स्वर में) पितामह, अहंकारी रावण, जो शिव का उपासक था। उसने सीता का हरण किया, फिर भी उनकी मर्यादा की रक्षा की, तब क्या आपके जैसे महानुभावों की उपस्थिति में द्रौपदी और अभिमन्यु के साथ जो हुआ, वह धर्मसंगत था? अब आप द्रोण, जयद्रथ, कर्ण और दुर्योधन की बात करेंगे। जब एक पक्ष धर्म की सीमा लांघता है, तब दूसरा पक्ष भी उसी मार्ग पर चल पड़ता है। राम और कृष्ण का यह भेद काल और परिस्थितियों का परिणाम है।
भीष्म: (नेत्र बंद कर, चिंतन में डूब जाते हैं ) कन्हैया, क्या यह आपकी लीला का विलास है? सब कुछ आपके द्वारा रचित है, फिर भी आप उससे पृथक हैं। अब मेरे अंतिम संशय को सुनें—जीवनचक्र का गूढ़ रहस्य, विश्व की उत्पत्ति का कारण क्या है? आपके साथ संनाद करने के बाद यह बोध की तीव्र इच्छा और प्रबल हो उठी है।
श्रीकृष्ण: पितामह, यह कैसी कामना है? मैं भी कालचक्र के अधीन हूं।
भीष्म: तो फिर कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया गया वह उपदेश क्या था?
श्रीकृष्ण: वह उसके कर्तव्यों का स्मरण मात्र था।
भीष्म: (करुण स्वर में) कृपा करें, यदुपति। शरशय्या पर पड़े मेरे मन में गहन नाद गूंज रहा है। यदि मेरे प्रश्नों का समाधान न मिला, तो मेरे जीवन का सारा ज्ञान और कर्म व्यर्थ हो जाएगा।
श्रीकृष्ण: (मुस्कुराते हुए, सौम्य स्वर में) पितामह, इस भौतिक जगत की संरचना का रहस्य जटिल अवश्य है, परंतु उसे समझा जा सकता है। इसके बोध के लिए मानव को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के समन्वय और संतुलन की आवश्यकता है। सामान्य ज्ञान तो केवल जीवन के कर्मों के निर्वहन के लिए है, किन्तु इस रहस्य को समझने के लिए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का सामंजस्य अपरिहार्य है। यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड ग्यारह आयामों में विभक्त है। हम इस समय तृतीय आयाम में विचरण कर रहें हैं। दस आयाम बोधगम्य हैं, किन्तु ग्यारहवां आयाम मैं स्वयं हूं। सब कुछ मुझसे प्रादुर्भूत होता है और मुझमें ही समाहित हो जाता है। इस ब्रह्मांड की अवस्था मेरे चेतन और अवचेतन से संनाद करती है। मेरे अवचेतन में ज्ञान का उदय मेरी चेतना को जागृत करता है। या यूँ कहें, अज्ञान के सूक्ष्म अणु में ज्ञान का प्रादुर्भाव ही इस भौतिक संरचना का जनक है।
भीष्म: (नेत्र बंद किए) कृष्ण के वचनों को सुनते हैं। सहसा वह नेत्र खोलते हैं। चारों ओर घोर अंधकार व्याप्त है, उन्हें स्वयं की भी अनुभूति नहीं हो रही। तभी उस अंधकार में प्रकाश का एक अति सूक्ष्म कण दृष्टिगोचर होता है। वह धीरे-धीरे विशाल तेजःपुंज में परिणत हो जाता है। उससे राधा प्रकट होती हैं, जो शीघ्र ही अर्धनारीश्वर रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। कुछ क्षण बाद वह स्वरूप राधाकृष्ण रूप में विभाजित हो जाता है। अब उनके समक्ष केवल कृष्ण दृश्यमान हैं, और अंधकार यथावत है। सहसा भीष्म देखते हैं कि कृष्ण से उनका स्वयं का रूप प्रगट होता है, और फिर वह उसी में समाहित हो जाता है। अंधकार लुप्त हो जाता है। सामने कृष्ण मुस्कुराते हुए खड़े हैं। भीष्म के नेत्रों से प्रेम और भक्ति से युक्त अश्रुधारा बहने लगती है।
भीष्म: (आवेश और कृतार्थ भाव से) माधव, मैं जीवन के यथार्थ बोध से परिपूर्ण हो गया हूं।
श्रीकृष्ण: प्रणाम, पितामह। अब मेरे प्रस्थान का समय है।
भीष्म: (मुस्कुराते हुए, आशीर्वाद के रूप में हाथ उठाकर) जाइए, कन्हैया।
विक्रम ( कुरूक्षेत्र युद्ध के पश्चात वाणशैय्या में लेटे हुए श्रीकृष्ण व पितामह के बीच हुए संवाद को अपने दृष्टिकोण से एक नए स्वरूप में प्रस्तुत करने का सूक्ष्म प्रयास )
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