शिवचिदानन्दद्वादशस्तोत्रम्छंद:
उद्देश्य: शिव के निराकार, साकार, और चिदानंद स्वरूप की महिमा, अद्वैत दर्शन, और विश्व के ताण्डवमय उत्सव को भक्ति के साथ व्यक्त करना।
श्लोक १
जटामुक्तगङ्गा जलधौतगौरं त्रिनेत्रं सनातनं शिवं परम्,
सनादति डमरुः प्रलयंकररूपं वहति विश्वं यथा तरंगति सिन्धुः।
चिदानन्दमूर्तिं महाशून्यनाथं सदा मोक्षदायीश्वरं हृदा,
भजामि स्मृतौ शूलपाणिं प्रभुं मे स्फुरति शान्तिः सदा तवाङ्घ्रौ॥
भावार्थ: शिव का गंगा-धारी, त्रिनेत्र, और विश्वरूपी स्वरूप, जो डमरु के नाद से विश्व को संनादित करता है, और चिदानंदमय महाशून्यनाथ के रूप में मोक्ष प्रदान करता है, हृदय से भजा जाता है।
श्लोक २
नीलकण्ठतेजं सहस्रार्कचन्द्रं करुणार्णवं स्मरहन्तृरूपम्,
महाकालकालं सनातनं तं वहति विश्वं यथा नक्षत्रमाला।
सदा योगचित्ते समुज्ज्वलति श्रीविश्वनाथं हृदा धारयामि,
नमामि निराकारमेकं प्रभुं मे जडचेतनं भेदमपाहरन्तम्॥
भावार्थ: नीलकण्ठ, करुणामय, और स्मरहंता शिव, जो महाकाल के रूप में विश्व को नक्षत्रमाला की तरह धारण करते हैं, योगी के चित्त में विश्वनाथ के रूप में चमकते हैं और जड़-चेतन का भेद मिटाते हैं।
श्लोक ३
भस्माङ्गरागं गजचर्मवसनं यतिप्रियं सर्वलोकाधिनाथम्,
सुरासुरवन्द्यं सनातनं एकं शिवमयं विश्वसारं प्रभुं तम्।
सदा शान्तिमार्गं प्रददाति सत्यं महाज्ञानतत्त्वं हृदन्ते,
स्तौमि निराकारमद्वैतदायिन् तवाङ्घ्रौ सदा मे प्रभुं शान्तिकारम्॥
भावार्थ: भस्म-रागी, गजचर्मधारी, और यतियों के प्रिय शिव, जो सुर-असुरों द्वारा वंदित हैं, शांति और ज्ञान का तत्त्व प्रदान करते हैं और अद्वैत दर्शन के दाता हैं।
श्लोक ४
विरूपाक्षतेजं प्रचण्डं रुद्रं विश्वरूपं परं पञ्चतत्त्वम्,
महाशक्तिनादं भैरवं स्मरं हन्तं चिदानन्दमूर्तिं सनातनम्।
सदा योगचित्ते समुज्ज्वलति श्रीमहादेवदेवं हृदा मे प्रभुं तम्,
ध्यायामि निराकारमेकं महाशून्यरूपं सदा चेतनं मे वहन्तम्॥
भावार्थ: विरूपाक्ष, भैरव, और पंचतत्त्वमय रुद्र, जो महाशक्ति के नाद से विश्व को संनादित करते हैं, योगी के चित्त में चमकते हैं और चेतना को वहन करते हैं।
श्लोक ५
नटराजमूर्तिः सहस्रार्चिगीतं मुनिस्तोति शम्भुं सदा ताण्डवेन,
प्रभवति विश्वं सदा जीवनं मे वहति चेतनं यथा सिन्धुतीरे।
भवं भवभीतिहरं च सनातनं तं त्रिपुरान्तकं मे स्मरामि,
नमामि हृदा विश्वनाथं परं तं सदा शान्तिकारं प्रभुं मे स्वरूपम्॥
भावार्थ: नटराज के ताण्डव से विश्व उत्पन्न होता है, जो भव और भवभीति को हरता है। मुनि उनकी स्तुति करते हैं, और वे चेतना को सिन्धु के तट की तरह वहन करते हैं।
श्लोक ६
स्फुरति भालचन्द्रं सनादति डमरुं त्रिलोकाधिनाथं करुणार्णवं तम्,
महादेवदेवं सदा कैलासवासं सनातनं तेजरूपं महाकालम्।
स्मरामि हृदा तं त्रिपुरान्तकं मे सदा शूलपाणिं चिदानन्दमूर्तिम्,
प्रपद्ये तवाङ्घ्रौ निराकारमेकं सदा ध्यायति चेतः शिवं मे स्वरूपम्॥
भावार्थ: कैलासवासी, चंद्र-डमरुधारी, और करुणामय महाकाल, जो त्रिपुरान्तक और चिदानंदमय हैं, मेरे चित्त में सदा ध्येय हैं।
श्लोक ७
अर्धं नारीरूपं सदा लिङ्गमूर्तिं पशूनां पतिं विश्वसृष्टौ वहन्तम्,
महाकालकालं प्रभवति शम्भुं चिदानन्दमूर्तिं सनातनं तं नमामि।
सदा योगचित्ते समुज्ज्वलति श्रीमहादेवदेवं हृदा मे प्रपद्ये,
जडं चेतनं भेदमपाहरन्तं निराकारमद्वैतदायिन् स्मरामि॥
भावार्थ: अर्धनारीश्वर, लिंगमूर्ति, और पशुपति शिव, जो विश्व को वहन करते हैं, जड़-चेतन भेद को मिटाते हैं और अद्वैत के दाता हैं।
श्लोक ८
सहस्रार्कतेजं जटिलं महेशं त्रिनेत्रं स्मरं विश्वनाथं सनातनम्,
सदा शान्तिमार्गं प्रददाति विश्वं महाशून्यनाथं निराकारमेकम्।
स्मरामि हृदा तं परमं चिदानन्दमूर्तिं तवाङ्घ्रौ हृदा मे प्रपद्ये,
स्तौमि सदा तं त्रिलोकाधिनाथं स्मृतौ चेतनं मे वहन्तं शिवं च॥
भावार्थ: सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी, विश्वनाथ, और महाशून्यनाथ शिव, जो शांति और चेतना प्रदान करते हैं, हृदय से स्तुत हैं।
श्लोक ९
महाकालरूपं परमं सनातनं विश्वसारं वहन्तं सहस्रार्चिचन्द्रम्,
गजचर्मवसनं सदा योगचित्ते स्मरं मे निराकारमद्वैतदायिन्।
हृदा भावयामि त्रिपुरान्तकं तं महाशक्तिनादं सदा शान्तिकारम्,
नमामि सदा तं शिवं मे प्रभुं च स्मृतौ जीवनं मृत्युहं च प्रपद्ये॥
भावार्थ: महाकाल, सहस्र चंद्रों के समान, और अद्वैतदायी शिव, जो महाशक्ति के नाद से जीवन और मृत्यु को हरते हैं, हृदय से ध्येय हैं।
श्लोक १०
सदा त्वां नमामि हृदा विश्वनाथं महाकालकालं करुणार्णवं तम्,
जडं चेतनं भेदमपाहरन्तं स्मरामि स्मृतौ मे सनातनमेकम्।
महाताण्डवेन प्रभवति विश्वं तवाङ्घ्रौ प्रपद्ये सदा शान्तिदं च,
निराकारमेकं महाशून्यनाथं हृदा ध्यायति चेतः शिवं मे स्वरूपम्॥
भावार्थ: विश्वनाथ, करुणामय, और महाशून्यनाथ शिव, जो ताण्डव से विश्व को उत्पन्न करते हैं और जड़-चेतन भेद मिटाते हैं, मेरे चित्त का स्वरूप हैं।
श्लोक ११
सदा त्वं स्वरूपं मम चेतनं मे वहसि प्रभो विश्वसृष्टौ समन्तात्,
महाशून्यसङ्गीतमयीं सनातनं त्वां स्मरामि हृदा पञ्चतत्त्वनादम्।
निराकारमेकं स्मृतिमृत्युहन्तं तवाङ्घ्रौ प्रपद्ये सदा शान्तिकारम्,
स्तौमि सदा तं त्रिलोकाधिनाथं हृदा मे शिवं चेतनं मे वहन्तम्॥
भावार्थ: महाशून्य का संगीत और पंचतत्त्व के नाद से युक्त शिव, जो स्मृति और मृत्यु को हरते हैं, मेरी चेतना को वहन करते हैं।
श्लोक १२
सदा त्वं हृदन्ते स्मृतिमृत्युहन्तं निराकारमेकं सनातनं मे वहसि,
महाताण्डवेन प्रभवति विश्वं तवाङ्घ्रौ प्रपद्ये सदा पञ्चतत्त्वं ननादति।
करुणार्णवं त्वां त्रिपुरान्तकं च हृदा ध्यायति चेतः शिवं मे स्वरूपम्,
नमामि सदा तं महाशून्यनाथं स्मृतौ चेतनं मे प्रभुं शान्तिकारम्॥
भावार्थ: स्मृति और मृत्यु को हरने वाले, पंचतत्त्व के नाद से विश्व को उत्पन्न करने वाले, और करुणामय महाशून्यनाथ शिव मेरे चित्त का स्वरूप हैं।
फलश्रुति
यः पठति स्मरति श्रीशिवचिदानन्दस्तोत्रं सदा भक्तियुक्तं हृदा तम्,
स मोक्षं लभति ज्ञानमयीं च शान्तिं महानादनाथस्य कृपया सनातनम्।
त्रिलोकाधिनाथं स्मरति यः सदा तं चिदानन्दरूपं परब्रह्ममेकम्,
सदा तस्य चेतः शिवमयं समुज्ज्वलति श्रीमहेशस्य कृपया सनादति॥
भावार्थ: जो भक्तियुक्त हृदय से इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह मोक्ष, ज्ञान, और शांति प्राप्त करता है। शिव की कृपा से उसका चित्त सदा चिदानंदमय और नादमय होता है।
विक्रम स्वरचित
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