शीर्षक: "संनादति विश्वम्"
प्रस्तावना
एषा रचना मम हृदयस्य गभीरचिन्तनस्य विश्वसृष्टेः रहस्यानां च समन्वयेन संनादति, यत्र संनादति विश्वस्य सूक्ष्मतत्त्वानां प्रकटीकरणस्य प्रयासः। प्रचलितमान्यतासु ग्रन्थेषु च उल्लिखितप्रसङ्गेभ्यः सर्वथा भिन्नं मम एतत् सर्जनम्। न तु तद् असहमतिम् अर्थति, अपितु कतिपयं विश्वस्य तत्त्वं मम दृष्टिकोणेन द्रष्टुं कथितुं च प्रयतितम्। एषा मम हिन्दीआलेखेन श्रीकृष्णार्जुनसंनादेन आधारिता काव्यमयी प्रस्तुतिः।मम एषा रचना अन्तःकरणस्य स्वरेण स्वतन्त्रचिन्तनस्य माध्यमेन सृष्टेः रहस्यं, निष्कामकर्मणः महत्वं, चेतनायाः अवचेतनायाश्च सामञ्जस्यं व्यक्तति। नाहं शास्त्राणाम् अन्धानुकरणं करोमि, किन्तु स्वदृष्टिकोणेन विश्वस्य गम्भीरतत्त्वानां प्रकटीकरणस्य यतति। एषा रचना ब्रह्मणः अरूपस्वरूपं, कालप्रवाहस्य संकल्पं, पञ्चतत्त्वानां च सामञ्जस्यं काव्यात्मकरूपेण प्रस्तोतुमिच्छति।एषा ब्रह्मणः मायाया प्रभावं, निष्कामकर्मणः महत्वं, चेतनायाः अवचेतनायाश्च सामञ्जस्यं प्रकटति। श्रीकृष्णार्जुनयोः संनादेन विश्वस्य सूक्ष्मतत्त्वं, कर्मणः शक्तिः, परिवर्तनस्य च स्वरूपं मया व्यक्तम्। न एषा कस्यचित् ग्रन्थस्य अनुसरणं, किन्तु मम अन्तःकरणस्य उद्गारः एव।
अनुवाद
यह रचना मेरे हृदय के गहन चिंतन और विश्व सृष्टि के रहस्यों को समझने व उनकी अभिव्यक्ति करने का प्रयास है। प्रचलित मान्यताओं और ग्रंथों में उल्लिखित प्रसंगों से यह रचना पूर्णतः भिन्न है। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं उनसे असहमत हूँ, अपितु कुछ प्रसंगों को मैंने अपने दृष्टिकोण से देखने और व्यक्त करने का प्रयास किया है। यह मेरे हिन्दी आलेख श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद पर आधारित काव्यमय प्रस्तुति है।यह रचना मेरे अंतःकरण के स्वर और स्वतंत्र चिंतन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य, निष्काम कर्म के महत्व, और चेतना-अवचेतना के सामंजस्य को व्यक्त करती है। मैं शास्त्रों का अंधानुकरण नहीं करता, बल्कि अपने दृष्टिकोण से विश्व के गंभीर तत्त्वों को प्रकट करने का यत्न करता हूँ। यह रचना ब्रह्म के अरूप स्वरूप, काल प्रवाह के संकल्प, और पंचतत्त्वों के सामंजस्य को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है।यह ब्रह्म की माया के प्रभाव, निष्काम कर्म के महत्व, और चेतना-अवचेतना के सामंजस्य को प्रकट करती है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद के माध्यम से विश्व के सूक्ष्म तत्त्व, कर्म की शक्ति, और परिवर्तन के स्वरूप को मैंने व्यक्त किया है। यह किसी ग्रंथ का अनुसरण नहीं, बल्कि मेरे अंतःकरण के उद्गार हैं।
संवाद
श्रीकृष्ण उवाच:
न मे रूपं न च सीमा नास्ति वै विश्वविस्तरे।
न दृश्यं न च बोध्यं च न वर्ण्यं कारणं मम।
सर्वं मया समुद्भूतं सर्वज्ञः स्वयमेवाहम्।
हे पार्थ, सृष्टितत्त्वं बोध, मम स्वरूपं न चिन्तय।।१।।
हिंदी अनुवाद:
मेरा कोई रूप नहीं है, न ही मेरे विस्तार की कोई सीमा है। मेरा स्वरूप न देखा जा सकता है, न समझा जा सकता है, न उसका वर्णन किया जा सकता है। मैं विश्व का कारण हूँ। सब कुछ मुझसे उत्पन्न होता है, मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ। हे पार्थ, सृष्टि के तत्त्व को समझ, मेरे स्वरूप का चिंतन न कर।
कल्पनाः सर्वथा कुर्या यथाशक्ति यथाबलम्।
ज्ञानेन साधनेनैव प्राप्नुहि तव प्रियं सदा।
यत्र बोधः समाप्नोति गहनावचेतन्यतः।
चेतन्यं मे समुद्भूतं तपोध्यानस्य संनादति।।२।।
हिंदी अनुवाद:
जितनी भी कल्पनाएँ करना चाहो, कर सकते हो, और अपनी शक्ति, ज्ञान, और साधनों से उन्हें प्राप्त कर सकते हो। याद रख, जहाँ तुम्हारी कल्पना शक्ति समाप्त हो जाएगी, तुम्हारा सारा बोध समाप्त हो जाएगा। तुम गहन अवचेतना से निकलकर पुनः चेतन अवस्था में प्रवेश करोगे। यह अवस्था तप और ध्यान की आखिरी अवस्था है, जो मेरे साथ तुम्हारे संबंध को प्रतिबिंबित करती है।
अहं शून्यस्य सृष्टा वै कल्पनाजल्पनात्मकः।
वर्तमानस्य जनकः स्याम् स्वप्नजागृतिभासकः।
कालप्रवाहसङ्कल्पः सर्वं मया समाहितम्।
हे कुन्तीपुत्र, मायामयं विश्वं मम संनादति।।३।।
हिंदी अनुवाद:
मैं महाशून्य का सृष्टिकर्ता हूँ। मैं कल्पना (भविष्य), जल्पना (भूतकाल), और वर्तमान का जनक हूँ। तुम्हारा यह वर्तमान स्वप्न-प्रेरित जागरण मात्र है। मैं काल-प्रवाह के हर स्वरूप का सृष्टिकर्ता हूँ। हे कुन्तीपुत्र, यह मायामय विश्व मेरे साथ संनादता है।
पञ्चतत्त्वं मया सृष्टं क्षितिजलपावकादिकम्।
मयि सर्वं समायाति यथा सिन्धौ नदीजलम्।
प्रकृत्या पञ्चधा युक्तं मम गीतं विश्वात्मकम्।
सृष्टिरहस्यं गर्भितं स्वयं संनादति मम।।४।।
हिंदी अनुवाद:
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु—ये पाँच तत्त्व मुझसे उत्पन्न होते हैं और मुझमें समाहित हैं। जैसे नदी का जल सागर में समाहित होता है, वैसे ही प्रकृति के ये तत्त्व मुझमें समाहित हैं। मेरे पंचतत्त्वों का यह अनूठा गीत विश्व-सृष्टि का रहस्य छिपाए है।
अहं अखण्डः प्रभामयः मौनी स्वयम्भूः परं यत्।
अदृश्ये दृश्यसङ्कल्पः दृष्टेस्तु परतोऽहम्।
नादिरस्ति न चान्तो मे सूत्रं छेदविवर्जितम्।
जीवनं मृत्युरूपं च मया सृष्टं विलीयति।।५।।
हिंदी अनुवाद:
मैं अखण्ड, प्रभामय, मौन, और स्वयम्भू ब्रह्म हूँ। मैं अदृश्य में दृश्य का संकल्प हूँ, फिर भी दृष्टि से ओझल हूँ। न मेरा आदि है, न अन्त, जैसे वह धागा जिसका कोई छोर न हो। जीवन और मृत्यु मुझसे उत्पन्न और मुझमें विलीन होते हैं।
निष्कामं कर्म कुर्यास्त्वं मम तत्त्वं विमुच्य वै।
सत्यं चासत्यं सर्वं मम मायाविलासति।
सर्वं मया समुद्भूतं मयि सर्वं विलीयति।
अज्ञानात् ज्ञानसंभूतिः सृष्टिहेतुरिहागतः।।६।।
हिंदी अनुवाद:
निष्काम कर्म द्वारा अपने कर्तव्य का पालन कर, मेरे तत्त्व को छोड़। सत्य और असत्य मेरी माया का प्रभाव है। सब कुछ मुझसे उत्पन्न होता है और मुझमें विलीन हो जाता है। अज्ञान से ज्ञान का उद्भव ही सृष्टि का कारण है।
विश्वस्य विशालं यद् वै परिवर्तनबिखरति।
तत्र मे स्वरूपं स्यात् न च दृश्यति मानवैः।
दशायामेषु सृष्टिश्च भौतिकज्ञानगोचरा।
चराचरस्य संभूतिः रसायनक्रियाफलम्।।७।।
हिंदी अनुवाद:
इस विश्व की विशालता, इसके परिवर्तन, और बिखराव के माध्यम से मेरे स्वरूप की अनुभूति हो सकती है। किन्तु मुझे न देखा जा सकता है, न सुना, न अनुभव किया। सृष्टि दस आयामों में विभक्त है, जिन्हें भौतिक ज्ञान से समझा जा सकता है। चर और अचर की उत्पत्ति भौतिक और रासायनिक क्रियाओं का परिणाम है।
परिवर्तनमेव सृष्टिविस्तारस्य कारणम्।
जीवनं मृत्युरूपं च विकासस्य निरन्तरम्।
आयामानां स्वरूपं च परस्परं प्रभावति।
रहस्यं सूक्ष्ममेतद् वै जटिलं शक्तिशालि च।।८।।
हिंदी अनुवाद:
परिवर्तन ही सृष्टि के विस्तार का कारण है। जीवन और मृत्यु विकास की निरंतरता को बनाए रखते हैं। प्रत्येक आयाम की अपनी संरचना है, फिर भी वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह रहस्य सूक्ष्म, जटिल, और शक्तिशाली है।
एकादशमायामोऽहं विश्वस्य जनकः स्वयम्।
मानवस्य बोधाकाङ्क्षा गर्भस्थशिशुजं यथा।
कल्पनाभावनिर्मितं मम स्वरूपं न प्राप्यते।
मम तत्त्वं न बुद्ध्या वै मानवेन समाप्यते।।९।।
हिंदी अनुवाद:
मैं स्वयं ग्यारहवाँ आयाम हूँ, इस विश्व की विशालता और संरचना का जनक। मानव की मेरे स्वरूप को जानने की आकांक्षा उस गर्भस्थ शिशु के समान है, जो गर्भ में रहकर माता के स्वरूप को देखने का भ्रम पालता है। वह अपनी कल्पना और भावना से मेरा स्वरूप बनाता और व्याख्या करता है, किन्तु मेरे तत्त्व को बुद्धि से प्राप्त नहीं कर सकता।
हिमशिखरे मन्त्रसाध्या श्रद्धायां तत्त्वचिन्तनम्।
अण्वणौ रहस्यं खोजति सर्वशक्तिमान् मतः।
प्राणबुद्बुदगिड़गिड़ं सर्वं बोधति मानवः।
श्रद्धां कृतज्ञतां दृष्ट्वा परितापं च मौन्यहम्।।१०।।
हिंदी अनुवाद:
हिमशिखर पर मंत्र-साधना से, श्रद्धा के ज्वार में मेरे रूपों और स्थानों का निर्माण करता है, मैं मौन हूँ। अणु-अणु में उत्पत्ति के रहस्य खोजता है, स्वयं को सर्वशक्तिमान मानता है, प्राणों के एक बुलबुले के लिए गिड़गिड़ाता है, सब कुछ समझने की लालसा रखता है, फिर भी मैं मौन हूँ।
सर्वं मम चेतन्यस्य अङ्गं निरन्तरं गतम्।
अवचेतन्यतो नव्यं चेतन्यं समुद्भवति मम।
तस्मात् मौनमेवाहं विश्वस्य रहस्यं धरे।
मानवः खोजति सर्वं न प्रापति मम तत्त्वम्।।११।।
हिंदी अनुवाद:
सब कुछ मेरी चेतन अवस्था का अंग है, जो मेरी अवचेतना तक नई चेतना की सृष्टि के लिए चलता रहता है। इसलिए मैं मौन हूँ। मानव सब कुछ खोजता है, किन्तु मेरे तत्त्व को प्राप्त नहीं करता।
विश्वं कर्माधारितं वै कर्मणि फलमस्ति च।
कर्म त्रिविधं प्रोक्तं स्यात् कर्म कुकर्ममकर्म च।
फलं त्रिविधं समाख्यातं सफलं दुष्फलं तथैव च।
सत्कर्मं ज्ञानविना न स्याद् भक्त्या ज्ञानमर्जति।।१२।।
हिंदी अनुवाद:
विश्व की समस्त क्रियाएँ कर्म पर आधारित हैं। कर्म में फल समाहित है। कर्म तीन प्रकार के हैं—कर्म, कुकर्म, और अकर्म। फल भी तीन प्रकार के हैं—सफल, दुष्फल, और असफल। सत्कर्म का उपयोग और लाभ ज्ञान के बिना संभव नहीं। ज्ञान भक्ति से अर्जित होता है।
ज्ञानं चानन्तमस्ति वै वैराग्येन च सार्थकम्।
न कोऽपि सर्वं प्राप्नोति यतोऽहं ज्ञानमेव च।
सर्वं मया समुद्भूतं न चाहं कस्माचन संनादति।
तमोगुणं परित्यज्य सत्त्वेन कर्म निर्वह।।१३।।
हिंदी अनुवाद:
ज्ञान अनंत है, और इसका सार्थक उपयोग वैराग्य से होता है। सृष्टि की कोई भी शक्ति सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती, क्योंकि मैं स्वयं ज्ञान हूँ। सब कुछ मुझसे उत्पन्न होता है, किन्तु मैं किसी से नहीं हूँ। तमोगुण को छोड़कर सत्त्वगुण की भावना से अपने कर्म का निर्वहन कर।
कर्म कुरु मम प्रेर्य्या मम कृते सदा सति।
मिथ्याभावविमुक्तस्त्वं सत्यकर्मणि सङ्गतः।
धर्मरक्षायै दुष्टानां विनाशं कुरु कौन्तेय।
एष कर्म एष कर्तव्यं मम भक्तेः प्रतीककम्।।१४।।
हिंदी अनुवाद:
मेरी प्रेरणा से मेरे लिए कर्म करो। मिथ्या विचारों से मुक्त होकर सत्यकर्म में संलग्न हो। धर्म की रक्षा के लिए दुष्टों का विनाश करो, हे कुन्तीपुत्र। यही तुम्हारा कर्म है, यही तुम्हारा कर्तव्य, और यही मेरी भक्ति का प्रतीक है।
सृष्टेः रहस्यं बोध त्वं सत्यकर्मणा संनादति।
न मे रूपं न चाकाङ्क्षा सृष्टौ च मम संनादति।
कर्मयोगेन संनादति मम तत्त्वं प्राप्यते।
हे अर्जुन, मम प्रभायां धर्ममार्गं समाप्नुहि।।१५।।
हिंदी अनुवाद:
सत्य कर्म से सृष्टि के रहस्य को समझ। मेरा कोई रूप नहीं, न ही कोई आकांक्षा, किन्तु सृष्टि में मेरी स्थिति है। कर्मयोग से मेरा तत्त्व प्राप्त किया जा सकता है। हे अर्जुन, मेरे प्रकाश में धर्म के मार्ग को प्राप्त कर।
उपसंहार इति"संनादति विश्वम्"
लेखकः
विक्रम सिंह केशवाही
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