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शनिवार, 2 अगस्त 2025

श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद

 कृष्ण अर्जुन संवाद 

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( श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद को प्रचलित मान्यताओं से हटकर एक अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता मेरा आलेख )


हे पार्थ, तुम मेरे विश्वरूप की केवल कल्पना कर सकते हो, क्योंकि मेरा कोई रूप नहीं है, न ही मेरे विस्तार की कोई सीमा है। मेरा स्वरूप न देखा जा सकता है, न समझा जा सकता है, न उसका वर्णन किया जा सकता है। मैं सर्वज्ञ हूँ।


  हे कुन्तीपुत्र, तुम जितनी भी कल्पनाएँ करना चाहो, कर सकते हो, और अपनी शक्ति, ज्ञान, और साधनों से उन्हें प्राप्त कर सकते हो। याद रहें जहां तुम्हारी कल्पना शक्ति समाप्त हो जाएगी, तुम्हारा सारा बोध समाप्त हो जाएगा । तुम गहन अवचेतना से निकल कर पुनः चेतन अवस्था में प्रवेश करोगे।  यह अवस्था ही मेरे साथ तुम्हारे संबंध को प्रतिबिंबित करती है। तप और ध्यान की यह आखिरी अवस्था है। 


मै इस महाशून्य का सृष्टिकर्ता हूँ।  मैं कल्पना (भविष्य), जल्पना (भूतकाल), और वर्तमान का जनक हूँ। तुम्हारा यह वर्तमान स्वप्न-प्रेरित जागरण मात्र है। मैं काल-प्रवाह के हर स्वरूप का सृष्टिकर्ता हूँ। पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु—ये पाँच तत्त्व मुझसे उत्पन्न होते हैं और मुझमें समाहित हैं। जिस प्रकार द्रौपदी ने तुम पाँच पाण्डवों का वरण किया है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति के ये तत्त्व मुझे वरण किए हुए हैं ।


 मेरा संवाद स्वयं से है। मेरे पंचतत्त्वों के इस अनूठे गीत में विश्व-सृष्टि का रहस्य छिपा है। मैं अखण्ड, अशेष, प्रभामय, मौन, और स्वयम्भू ब्रह्म हूँ । मैं दृश्य विश्व से परे हूँ, अदृश्य में दृश्य हूँ, फिर भी दृष्टि से ओझल हूँ। न मेरा आदि है, न अन्त, जैसे वह डोर जिसका कोई छोर न हो। जीवन और मृत्यु की परिभाषा से पृथक हूँ । इसकी उत्पत्ति और विलय मुझसे है।


अतः हे पार्थ, मेरे ब्रह्मरूप को देखने की इच्छा का त्याग कर। निष्काम कर्म द्वारा अपने कर्तव्य का पालन कर। जो तुम देख रहे हो, वह भ्रम मात्र है। सत्य और असत्य मेरी माया का प्रभाव है। सब कुछ मुझसे उत्पन्न होता है और मुझमें विलीन हो जाता है। अज्ञान से ज्ञान का उद्भव ही सृष्टि का कारक है।


 मेरे पूर्ण स्वरूप का दर्शन असम्भव है। इस विश्व की विशालता, इसके परिवर्तन, और बिखराव के माध्यम से मेरे स्वरूप की अनुभूति हो सकती है। किन्तु मुझे न देखा जा सकता है, न सुना, न अनुभव किया जा सकता है ।


 सृष्टि दस आयामों में विभक्त है, जिन्हें भौतिक ज्ञान से समझा जा सकता है। परिवर्तन ही सृष्टि के विस्तार का कारण है। चर और अचर की उत्पत्ति भौतिक और रासायनिक क्रियाओं का परिणाम है। जीवन और मृत्यु विकास की निरन्तरता को बनाए रखते हैं।  प्रत्येक आयाम की अपनी संरचना है, फिर भी वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह रहस्य सूक्ष्म, जटिल, और शक्तिशाली है। मेरे सिवा कोई इसे नहीं जान सकता,क्योंकि मैं स्वयं ग्यारहवाँ आयाम हूँ ।


 इस विश्व की विशालता और संरचना का जो अनुभव तुम्हें होता है, उसका जनक भी मैं हूँ । हे अर्जुन, मानव की मेरे स्वरूप को जानने की आकांक्षा उस गर्भस्थ शिशु के समान है, जो गर्भ में रहकर माता के स्वरूप को देखने का भ्रम पालता है। वह अपनी कल्पना और भावना से मेरा स्वरूप बनाता और व्याख्या करता है। 


अपने अर्जित ज्ञान और विज्ञान से स्वयम्भू सृष्टिकर्ता बनने का प्रयास करता है, किन्तु मैं मौन हूँ। हिमशिखर पर मन्त्र-साधना से, श्रद्धा के ज्वार में मेरे रूपों और स्थानों का निर्माण करता है, मैं मौन हूँ। अणु-अणु में उत्पत्ति के रहस्य खोजता है, स्वयं को सर्वशक्तिमान मानता है, प्राणों के एक बुलबुले के लिए गिड़गिड़ाता है, सब कुछ समझने की लालसा रखता है, फिर भी मैं मौन हूँ।  श्रद्धा, कृतज्ञता, और परिताप देखकर भी मैं मौन हूँ। सब कुछ मेरी चेतन अवस्था का अंग है, जो मेरी अवचेतना तक नई चेतना की सृष्टि के लिए चलता रहता है। इसलिए मैं मौन हूँ।  


हे पार्थ, कर्म-आधारित जीवन में सार्थकता है। विश्व की समस्त क्रियाएँ कर्म पर आधारित हैं। कर्म में फल समाहित है। कर्म तीन प्रकार के हैं—कर्म, कुकर्म, और अकर्म। फल भी तीन प्रकार के हैं—सफल, दुष्फल, और असफल। सत्कर्म का उपयोग और लाभ ज्ञान के बिना सम्भव नहीं। ज्ञान भक्ति से अर्जित होता है और इसका सार्थक उपयोग वैराग्य से होता है।


 ज्ञान अनन्त है। सृष्टि की कोई भी शक्ति सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती, क्योंकि मैं स्वयं ज्ञान हूँ। सब कुछ मुझसे है, किन्तु मैं किसी से नहीं हूँ।  


अतः मेरे ब्रह्मरूप को देखने की उत्कंठा का त्याग कर। तमोगुण को छोड़कर रजोगुण से युक्त होकर सत्त्वगुण की भावना से अपने कर्म का निर्वहन कर। तुम्हारा यह कर्म मेरी भक्ति का प्रतीक है। मेरी प्रेरणा से मेरे लिए कर्म करो। मिथ्या विचारों से मुक्त होकर सत्यकर्म द्वारा धर्म की रक्षा के लिए दुष्टों का विनाश करो। यही तुम्हारा कर्म है और यही तुम्हारा कर्तव्य। यही मेरी सच्ची आराधना और मुझे प्राप्त करने का मार्ग है। 


 लेखक

विक्रम सिंह 

केशवाही

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