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शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता...







क्यूँचुप हो कुछ बोलो श्वेता
मौंन बनी
क्यूँमुखरित श्वेता

क्षित की भी तुम सुन्दर-आभा
नील-गगन की हो परिभाषा
है पावक तुमसे ही शोभित
जल की हो तुम ही अभिलाषा

है समीर तुमसे ही चंचल, द्रुपद-सुता सी हो न श्वेता


महाशून्य से उद्दगम करती
दिग्ग-विहीन होकर हो बहती
सरिता महा-मौन की कैसी
हो अरूप रूपों को रचती

मौंन मुखर जीवन -छन्दो में, बस तुम ही होती हो श्वेता


इक कल को कल्पना बनाती
इक कल को जल्पना बनाती
वर्त्तमान भ्रम की परछाई
स्वप्न-छालित जागरण दिखाती

काल-प्रबल की हर स्वरूप की ,जननी क्या तुम हीं हो श्वेता


शब्द एक पर अर्थ कई है
डोर एक पर छोर नहीं है
जीवन मरण विलय कर जाते
रंग हीन के रंग कई है

हो अनंत का अंत समेटे, फिर भी अंत हीन हो श्वेता


है खुद से संलाप तुम्हारा
पंच-तत्व का गीत ये न्यारा
है अखंड आशेष प्रभा-मय

मौंन स्वयम्भू ब्रम्ह तुम्हारा

हो अद्रश्य में द्रश्य, द्रष्टि से फिर भी तुम ओझल हो श्वेता

विक्रम

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