आँसू से उर ज्वाल बुझाते
देह धर्म का मर्म न समझा
भोग प्राप्ति में ऎसा उलझा देह धर्म का मर्म न समझा
कर्म भोग के बीच संतुलन,खोकर सुख की आश लगाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
प्रणय उच्चतर मैने माना
अमर सुधा पीने की ठाना
भोग नही बस सृष्टि कर्म है,आह समझ उस क्षण हम पाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
घनीभूत विषयों का साया
भेद समझ न इसके पाया
शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
विक्रम
घनीभूत विषयों का साया
जवाब देंहटाएंभेद समझ न इसके पाया
शिथिल हुआ था ज्ञान,
तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते,
वाह!!!! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,लाजबाब पंक्तियाँ,....
घनीभूत पीड़ा व्यक्त करती ....उत्कृष्ट रचना ...
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनायें .
सर जी आप की इस बेहतरीन रचना ने नि:शब्द कर दिया, प्रकृति के श्वाशत सत्य को स्वीकार करने में जीवन की सार्थकता ,स्रष्टि कर्म के निर्वाहन में ही जीवन का सुख अन्यथा पीड़ा ,और इसी सत्य को सुन्दर ,सारगर्भित शब्दों से आप ने चित्रित किया है,पिछली रचना में जहाँ पौरुष-प्रकृति के मिलन समर्पण का मनोहारी वर्णन है,वही इस रचना में उस कर्म के सत्य ,और उस सत्य को न स्वीकारनें उपजी पीड़ा. कितनी सहजता से मेरे प्रश्न ,का उत्तर ,और उसी उत्तर को प्रश्न बना कर मेरे सामने रख दिया या फिर यह कहूँ की जीवन दर्शन का बोध करा दिया,सर जब मे इंटर की क्षात्रा थी आप का भाषण विवेकानंद जयंती पर बुढार के अपनें कालेज में सुना था मेरे पिता जी उस समय वहां ओरियंट पेपर मिल अमलाई में सर्विस करते थे ,आप मुख्य आथित के रूप में आये थे,मेरे पिता जी ने कहा था की यह नेता से कही ज्यादा सुलझे विचारक है, आप की प्रोफाइल जब पिता जी को दिखायी तो वह आप को पहचान गये.आठ माह पूर्व वह हम लोगो को छोड़ कर चले गये ,शादी के बाद से इलाहाबाद में हूँ ,आप के तेज स्वभाव के बारे में वहां रहने व पिता जी के माध्यम से जानकारी थी.तथा मने अपनी आँखों से देखा की शिकायत के बाद भी पुलिस एक बदमाश को मेरे कालोनी आने से नहीं रोक पा रही थी,सक्सेना अंकल ने आप से शिकायत की ,केशवाही से आकर, पुलिस के सामने आप ने उसे इतना मारा ,की फिर कभी दिखाई नहीं दिया. इसी लिए नबर होते हुए आप से बात नहीं कर पायी . आप के मन व विचारों से कितना कोमलता है यह आप केब्लाग पढनें के बाद जान पाई. ,आई थी कविता के बारे में कुछ कहनें पर अपने को रोक नहीं पाई ,क्षमा याचना केसाथ .
जवाब देंहटाएंप्रिय नंदिता
हटाएंमुझे लगता है की मेरी रचना की जो व्याख्या आपके व्दारा की गयी वह रचना से भी ज्यादा अच्छी है ,मै खुद अपनी रचना में उन भावो की तलाश करता रहा,अमलाई में रह चुकी हो जानकार खुशी हुई,तथा आपके पिता जी के बारे में जान कर दुःख हुआ. बेटी अगर पिताजी के नाम का उल्लेख करती,तो मै आपके बारे में बेहतर जान पाता.
आशीर्वाद के साथ
prasanshaniye......
जवाब देंहटाएंघनीभूत विषयों का साया
जवाब देंहटाएंभेद समझ न इसके पाया
शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
bahut sunder bhav hai .nandita ji ne aapki kavita ka sunder marm prastut kiya hai .
saader
rachana
शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
जवाब देंहटाएंयह भावपूर्ण प्रस्तुति और नन्दिता जी की सार्थक व्याख्या...दोनों ही उत्कृष्ट!
सादर
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंसादर!
jiivan katu sach ko darshaati behatariin rachana.
जवाब देंहटाएंsaadar
घनीभूत विषयों का साया
जवाब देंहटाएंभेद समझ न इसके पाया
शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
इस गीत का प्रवाह लुभाता है, इसे बार-बार पढ़ने को, और इसे ही इसकी सफलता मानता हूं मैं। इसके भाव भी सारगर्भित हैं।
..jiwan anubhav se pagi sarthak sandesh deti sundar rachna..
जवाब देंहटाएंsaadar
बहन नंदिता से मिला मुझको अच्छा ज्ञान
जवाब देंहटाएंउनकी बातों का सदा रखना मुझको ध्यान
रखना मुझको ध्यान कलम ही नहीं चलाते
चलते भी हैं हाथ,दुष्ट को धुन कर जाते
नाम सरीखे काम ,सभाल कर मुझको रहना
विक्रम जी से अब मजाक मुझको न करना
vijay jii
हटाएंhae pyaara mradu haas tumhaara
आँसू से उर ज्वाल बुझाते ...
जवाब देंहटाएंकाव्य भाव जब मानस के अनुकूलन में हों तो अनुशीलन का भाव जाग्रत हो प्रमेय को सुलझाने का प्रयत्न करता ही है ,जो शायद न कर भी पाए तो सुखद भाव में होता है .....परोक्ष ,अपरोक्ष उद्दात रश्मियों को प्रकिर्नित करता ब्लॉग व सृजन ,सौम्य है/ आभार सर !
घनीभूत विषयों का साया भेद समझ न इसके पाया
जवाब देंहटाएंरोचक हेँ आपके दोहे नुमा कविता लेकिन कठीन भी
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर
जवाब देंहटाएंप्रणय उच्चतर मैने माना
जवाब देंहटाएंअमर सुधा पीने की ठाना
भोग नही बस सृष्टि कर्म है,आह समझ उस क्षण हम पाते
वाह.....अति सुन्दर