आज फिर कुछ खो रहा हूँ
करुण तम में है विलोपित
हास्य से हो काल कवलित
अधर में हो सुप्त,सपनों से बिछुड़ कर सो रहा हूँ
आज फिर कुछ खो रहा हूँ
नग्न जीवन है प्रदर्शित
काल के हाथों विनिर्मित
टूटते हर खण्ड का,चेहरा यहाँ मै हो रहा हूँ
आज फिर कुछ खो रहा हूँ
आज से है कल हताहत
अब कहाँ जाऊँ तथागत
नीर से मै नीड़ का,निर्माण करके रो रहा हूँ
आज फिर कुछ खो रहा हूँ
विक्रम
करुण तम में है विलोपित
हास्य से हो काल कवलित
अधर में हो सुप्त,सपनों से बिछुड़ कर सो रहा हूँ
आज फिर कुछ खो रहा हूँ
नग्न जीवन है प्रदर्शित
काल के हाथों विनिर्मित
टूटते हर खण्ड का,चेहरा यहाँ मै हो रहा हूँ
आज फिर कुछ खो रहा हूँ
आज से है कल हताहत
अब कहाँ जाऊँ तथागत
नीर से मै नीड़ का,निर्माण करके रो रहा हूँ
आज फिर कुछ खो रहा हूँ
विक्रम
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