पंक्षी आता हैं
शिला खंड में बैठ
अपने परों को फडफडाता हैं
सूरज
समेटने लगता हैं
अपनी स्वर्णिम छवि
जा छुपता हैं
पश्चिम के आँचल में
निशा गहरा जाती हैं
पंक्षी सो जाता हैं
परों को समेट अपने घोसले में
छा जाता हैं सन्नाटा
हाँ नहीं रुकता
झरने का बहना
पवन का चलना
पंक्षी निकालता हैं
अपना सर
घोसले के बाहर
परों को हौले-हौले फैलाता हैं
फैल जाती हैं
पूर्व में एक रक्तिम आभा
जैसे कर लिया हों किसी ने
सोती गोरी के अधरों का पान
हों गये हों शर्म से लाल
उसके गुलाबी गाल
होता हैं कुछ ऐसे ही विहान
सूरज
झाकता हैं सागर में
उठता हैं बादल
छा जाता हैं आकाश में
फिर
बूद बूद झर जाता हैं
छुपा सूरज को अपने दामन में
निकलता हैं अंकुर
पत्तो के नीचे
पत्ते
जो झड़ गये हैं डाल से
पड़े हैं तने के पास
मृत्य
अंकुर
पचाता हैं
झरे पत्तो को
कर लेटा हैं श्रँगार
नव-पल्लवो से
कुछ बना कुछ बिगडा
या यूं कहें
सब हैं वही
केवल रूप बदला
सब का होता है अर्थ
जाने का आने का
बनने बिगड़ने का
वही हैं मौन
अपरिवर्त
अमिट अभेद्य
सृजन का क्रम
जो चलता हैं निरंतर
बन
भव्य मंद गंभीर
विक्रम
बहुत बढ़िया लिखा है
जवाब देंहटाएं---आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
वाह जी
जवाब देंहटाएंकाफी लंबी थी
लेकिन
एक एक शब्द को
पढने में
जो
मजा आया
उसका
बखान
नहीं कर सकता
दिल से तारीफ बधाई स्वीकार करें
बहुत बढ़िया.
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