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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

साथी शिथिल हुए पग मेरे



साथी...............



साथी शिथिल हुए पग मेरे

अर्थ हींन
अज्ञात दिशा में
पथ विहीन हो शुष्क धारा में


सीमा-हीन तृषा रख उर में,मरू-थल के लेता था फेरे

निष्फल हुयी कामना मन की
रवि किरणों से स्वर्णिम रज की

धूलि-कणों में मैनें प्रतिदिन ,कंचन कण थे हेरे

रूठी मौन संगनी छाया
मेरे संग क्या उसने पाया

तम ने उसकी परवशता के ,बन्धन काटे सारे



vikram

3 टिप्‍पणियां:

  1. सीमा-हीन तृषा रख उर में,मरू-थल के लेता था फेरे
    बहुत सुंदर ठाकुर साहब. शब्द एवं भावों का अत्यन्त सुंदर संयोजन .
    और साथ का चित्र भी कविता की ही भांति अर्थ पूर्ण एवं सुंदर है .

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