Click here for Myspace Layouts

मंगलवार, 1 जून 2010

वह सुनयना थी ...............

वह सुनयना थी
कभी चोरी-चोरी मेरे कमरे मे आती
नटखट बदमाश
मेरी पेन्सिले़ उठा ले जाती
और दीवाल के पास बैठकर
अपनी नन्ही उगलियों से, भीती में चित्र बनाती
अनगिनत-अनसमझ, कभी रोती कभी गाती

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
मुझे देख सकुचाई थी
नव-पल्लव सी अपार शोभा लिए,पलक संपुटो में लाज को संजोये
सुहाग के वस्त्रों में सजी,उषा की पहली किरण की तरह, कॉप रही थी
जाने से पहले मागने आयी थी ,वात्सल्य भरा प्यार
जो अभी तक मुझसे पा रही थी

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
दबे पाव,डरी सहमी सी, उस कबूतरी की तरह
जिसके कपोत को बहेलिये ने मार डाला था
संरक्षण विहीन
भयभीत मृगी के समान ,मेरे आगोश में समां गयी थी
सर में पा ,मेरा ममतामईं हाथ
आसुवो के शैलाब से,मेरा वक्षस्थल भिगा गयी थी
सफेद वस्त्रों में उसे देख ,मैं समझ गया था
अग्नि चिता में,वह अपना ,सिंदूर लुटा आयी थी

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
नहीं इस बार दरवाजे पे
दबे पाँव नहीं
कोई आहट
नहीं
कोई आँसू नहीं
सफेद चादर से ढकी, मेरे ड्योढी में पडी थी
मैं आतंकित सा, कापते हाथो से, उसके सर से चादर हटाया था
चेहरे पे अंकित थे वे चिन्ह
जो उसने, वासना के, सडे-गले हाथो से पाया था
मैने देखा,उसकी आखों में शिकायत नहीं,स्वीकृति थी
जैसे वह मौन पड़ी कह रही हो
हे पुरूष, तुम हमे
माँ
बेटी
बहन
बीबी
विधवा
और वेश्या बनाते हो
अबला नाम भी तेरा दिया हैं
शायद इसीलिए ,अपने को समझ कर सबल
रात के अँधेरे में,रिश्तो को भूल कर
भूखे भेडिये की तरह
मेरे इस जिस्म को, नोच-नोच खाते हो
क्या कहाँ ,शिक़ायत और तुझसे
पगले, शायद तू भूलता है
मैने वासना पूर्ति की साधन ही नहीं
तेरी जननी भी हूं
और तेरी संतुष्ति,मेरी पूर्णता की निशानी हैं
मैं सहमा सा पीछे हट गया
उसकी आखों में बसे इस सच को मैं नहीं सह सका
और वापस आ गया ,अपने कमरे में
शायद मैं फिर करूगां इंतजार
किसी सुनयना का
वह सुनयना
थी

विक्रम
[पुन:प्रकाशित]

4 टिप्‍पणियां:

  1. भावनाओं से भरी बढ़िया रचना ! मगर ये दुआ करो कि फिर वैसी कोई सुनयना न आये !

    जवाब देंहटाएं
  2. ढेर साड़ी वेदना और संवेदना लिए, बहुत मार्मिक रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  3. उफ़ बेहद संवेदनशील और मार्मिक रचना.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत मार्मिक और संवेदनशील रचना

    जवाब देंहटाएं