इतने दिनों बाद
अपनी खीची,अर्थहीन रेखा के पास
खड़ा हूँ
तुम्हारे सामाने
यादों के धुंध में
लहरा गयी है
बीते पलों की वह छाया
जब तुमने
रोका था मुझे
गुरु, सखा की भाँति
पर मै,महदाकांक्षा के वशीभूत
चला गया
कर अवहेलना
तुम्हारे आदेश की,याचना की
सर्व सिद्ध,गुणी की भाँति
याद है
अर्थहीन आकारों को
सार्थक करने के प्रयास में
रौद डाला
अपनी ही काया कों
वासना
ईर्ष्या
द्वेष के, पैरों तले
कर अपनी ही, करुणा से द्वन्द
जा लिपटा
इच्छाओं के सर्प-फण से
आज
जीवन समर में
हिम-तुषारों
पतझड़
तपिस
वर्षा से पराजित
अपनी ही प्रतिध्वनि से डरा
स्तब्ध
शब्दहीन
इस याचना के साथ
दंणवत हूँ
पा सकूं
फिर से
प्रेम
श्रद्धा
करुणा की नदी को
जो खो गयी है
मेरी इच्छाओं के रेत में
विक्रम
स्तब्ध
जवाब देंहटाएंशब्दहीन
इस याचना के साथ
दंणवत हूँ
पा सकूं
फिर से
प्रेम
श्रद्धा
करुणा की नदी को
जो खो गयी है
मेरी इच्छाओं के रेत में.....gahre arth khud me chupaye ,behtreen kavita....
सुंदर , गहरे भाव व्यक्त करती रचना...
जवाब देंहटाएंगहन भाव लिए अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंअनुपम भाव संयोजन ।
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