आ,मृग -जल से प्यास बुझाएं
कहाँ गई मरकत की प्याली
द्रोण-कलश भी मेरा खाली
चिर वसंत-सेवित सपनों में,खोकर शायद मधु-रस पाएं
आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं
गिर निर्झर जैसे हो कहता
समय अनवरत बहता रहता
मन कल्पित आकांक्षित गृह में,रुक अतीत से हाथ मिलाएं
आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं
है अतीत इतना ही कहता
वर्तमान ही जीवित रहता
सासों में अटके जीवन से,जन्म-मरण के प्रश्न चुराएं
आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं
विक्रम
कहाँ गई मरकत की प्याली
द्रोण-कलश भी मेरा खाली
चिर वसंत-सेवित सपनों में,खोकर शायद मधु-रस पाएं
आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं
गिर निर्झर जैसे हो कहता
समय अनवरत बहता रहता
मन कल्पित आकांक्षित गृह में,रुक अतीत से हाथ मिलाएं
आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं
है अतीत इतना ही कहता
वर्तमान ही जीवित रहता
सासों में अटके जीवन से,जन्म-मरण के प्रश्न चुराएं
आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं
विक्रम
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