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बुधवार, 17 मई 2017

आ मृग-जल से...

आ,मृग -जल से प्यास बुझाएं

कहाँ गई मरकत की प्याली
द्रोण-कलश भी  मेरा खाली

चिर वसंत-सेवित सपनों में,खोकर शायद मधु-रस पाएं

आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं

गिर निर्झर जैसे हो कहता
समय अनवरत बहता रहता

मन कल्पित आकांक्षित गृह में,रुक अतीत से हाथ मिलाएं

आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं

है अतीत इतना  ही कहता
वर्तमान ही जीवित रहता

सासों में अटके जीवन से,जन्म-मरण के प्रश्न चुराएं

आ,मृग-जल से प्यास बुझाएं

विक्रम

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