जीवन जीना ही पड़ता हैं
छल गया कोई, अपना बन के
वह चला गया, सपना बन के
रिश्तो की भूल-भुलैया में, चल कर जीना ही पड़ता हैं
जीवन जीना ही पड़ता हैं
आशा के पंख ,लगा करके
कुछ हद तक सच, झुठला करके
गैरों पे मढ़ कर दोष यहाँ, ख़ुद को छलना भी पड़ता हैं
जीवन जीना ही पड़ता हैं
इस भरी दुपहरी से ,तप के
पल शांत निशा के, पा करके
तृष्णा से उपजे घावों को, सहला कर रोना पड़ता हैं
जीवन जीना ही पड़ता हैंविक्रम
जीवन की सच्चाई यही है इसे तो जीना ही पडता है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना
छल गया कोई, अपना बन के sundar kavita
जवाब देंहटाएंjeevan ke yatharth ko badi hi sundarta se aapne shabd diye hain....Bahut hi sundar rachna ke liye aabhar.
जवाब देंहटाएंक्यो जीना होता है ..........मुझे कई बार आहत करता है यह बात ............पर मै आखिर मे यही पाता हुँ कि जीना पड्ता ही है...........बहुत ही सही कहा आपने
जवाब देंहटाएंविक्रम जी,
जवाब देंहटाएंआपके रचना संसार से आज वाकिफ़ हुआ। बड़ा ही सार्थक यथार्थ लिखा है जैसे कि कोई बाँटता हो अपना अनुभव आपके साथ ।
प्रस्तुत गीत में मुझे निम्न पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया :-
कुछ हद तक सच, झुठला करके
गैरों पे मढ़ कर दोष यहाँ,
ख़ुद को छलना भी पड़ता हैं
जीवन जीना ही पड़ता हैं
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आपके "कवितायन" पर आने का शुक्रिय।
'इस भरी दुपहरी से ,तप के
जवाब देंहटाएंपल शांत निशा के, पा करके ........'
जीवन- दर्शन से रूबरू कराती सुन्दर कविता
बहुत सही फरमाया आपने...
जवाब देंहटाएंजीवन जीना ही पड़ता हैं