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बुधवार, 12 अगस्त 2009


पंक्षी आता हैं
शिला खंड में बैठ
अपने परों को फडफडाता हैं
सूरज
समेटने लगता हैं
अपनी स्वर्णिम छवि
जा छुपता हैं
पश्चिम के आँचल में
निशा गहरा जाती हैं
पंक्षी सो जाता हैं
परों को समेट अपने घोसले में
छा जाता हैं सन्नाटा
हाँ नहीं रुकता
झरने का बहना
पवन का चलना
पंक्षी निकालता हैं
अपना सर
घोसले के बाहर
परों को हौले-हौले फैलाता हैं
फैल जाती हैं
पूर्व में एक रक्तिम आभा
जैसे कर लिया हों किसी ने
सोती गोरी के अधरों का पान
हों गये हों शर्म से लाल
उसके गुलाबी गाल
होता हैं कुछ ऐसे ही विहान
सूरज
झाकता हैं सागर में

उठता हैं बादल
छा जाता हैं आकाश में
फिर
बूद बूद झर जाता हैं
छुपा सूरज को अपने दामन में
निकलता हैं अंकुर
पत्तो के नीचे
पत्ते
जो झड़ गये हैं डाल
से
पड़े हैं तने के पास
मृत्य
अंकुर
पचाता हैं
झरे पत्तो को
कर लेटा हैं श्रँगार
नव-पल्लवो से
कुछ बना कुछ बिगडा
या यूं कहें
सब हैं वही
केवल रूप बदला
सब का होता है अर्थ
जाने का आने का
बनने बिगड़ने का
वही हैं मौन
अपरिवर्त
अमिट अभेद्य
सृजन का क्रम
जो चलता हैं निरंतर
बन
भव्य मंद गंभीर

विक्रम[पुन:प्रकाशित]

6 टिप्‍पणियां:

  1. prakriti का nirantar chakr तो chalta rahta है.......... sundar रचना का srajan है

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  2. स्रजन और म्रत्यु के भाव को बहुत गहराई से प्रस्तुत किया है ,सुन्दर रचना |

    जवाब देंहटाएं
  3. सृजन का क्रम
    जो चलता हैं निरंतर
    बन
    भव्य मंद गंभीर
    बेहतरीन अभिव्यक्ति और सार्थक स्वरूप प्रदान किया है आपने अपनी रचना का

    जवाब देंहटाएं
  4. विक्रम जी, कब से आपने कुछ नही लिखा? क्यों?

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