कहाँ गये हैं,ये काले घन
वह वर्षा ,बूदों की टपटप
द्रुत लहरीले जल की कलकल
ग्वाले की बाँसुरी सुनाती ,नही कोई अब प्यारी सी घुन
कहाँ गये हैं,ये काले घन
गान कहाँ हैं ,घन गर्जन के
चिहुँक न सुनते खग-शावक के
नभ में नही दमकती दामिनि,कहाँ गई जो थी घन की धन
कहाँ गये हैं ,ये काले घनजल-प्रपात के लुप्त हुए स्वर
नही सुनाते झिल्ली के स्वर
उत्सव- ढोलक के थापों को, लेकर चले गये रूठे घन
कहाँ गये हैं ,ये काले घन
विक्रम
एक पहेली बन गयी है यह सवाल..
जवाब देंहटाएंसब ढूढ़ रहे है की क्यों इस बार इतने नाराज़ है ये काले घन..
बढ़िया लिखा आपने..बधाई..
आपकी नज़र पैनी हैं .................और सवाल बहुत वाजिब .........आपकी अभिव्यक्ति को प्रणाम!
जवाब देंहटाएंयहाँ तो खूब बरसे आज काले घन :) अच्छी लगी आपकी रचना विक्रम जी
जवाब देंहटाएंविक्रम जी वो तो हमारी तरफ आये हैं हा हा हा बहुत बडिया रचना है बधाई
जवाब देंहटाएंACH MEIN IS BAAR TO KALE MEGH AAYE HI NAHI ... INTEZAAR MEIN RACHI LAJAWAAB RCHNA HAI VIKRAM JI ..... BAHOOT SUNDAR
जवाब देंहटाएं:) बहुत बढ़िया रचना.
जवाब देंहटाएंbahut badhiya ............
जवाब देंहटाएंबेहद गहरी भाव समेटे हुई रचना...
जवाब देंहटाएंआपकी कविता के कुशल शब्द-संयोजन मे सूखे की नही बल्कि बारिश की बूदों की थाप है..शायद प्रकृति भी इसे सुन ले..बहुत अच्छी लगी!
जवाब देंहटाएं"कहाँ गये हैं,ये काले घन"
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
barkha rani shayd is kavita ke bad aa hi gayi hogi?
जवाब देंहटाएंkavita achchhee lagi.