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मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

सूनापन कितना खलता है



सूनापन कितना खलता है

आँखों से दर्द टपकता है
होंठों से हँसना पड़ता है

दोनों की बाहें थाम यहाँ,जीवन भर चलना पड़ता है

सूनापन कितना खलता है

मझधार में मांझी  रोता है
लहरों के बोल समझता है 

है वेग तेरा भारी मुझपर,पतवार वार को सहता है

सूनापन कितना खलता है 

दिन धीरे-धीरे ढलता है
चेहरे का रंग बदलता है

इस श्वेत श्याम की छाया में,बीता कल छुप कर रहता है 

सूनापन कितना खलता है


विक्रम 

2 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन अकेले ही गुजारना होता है ... सूनेपन को ही साथी बनाना पड़ता है अक्सर ...
    अकेलेपन के दर्द को कहती रचना ....

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  2. सुंदर अभिव्यक्ति,भावपूर्ण पंक्तियाँ ...!
    =======================
    RECENT POST -: हम पंछी थे एक डाल के.

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