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रविवार, 25 जनवरी 2009

वसीयत ........

कौन

मैं हूँ प्रिय

क्या चाहते हों

परिचय तुम्हारे उत्तराधिकारी से

समझ आगंतुक का मनतब्य
मैने कहाँ
तुम्हारे एक रोटी के टुकडे की कीमत

मैने बाजार में

अपनी अस्मत बेच कर चुकाई हैं

क्या तुम्हे अभी संतुष्टि नहीं हों पायी हैं

वह हँसा और बोला

जो तुमने चुकाया वह मूळ था

सूद तो बाक़ी हैं

अपने वारिस को समझाना

तुम्हारे बाद उसे ही हैं इस कर्ज को चुकाना



अब कौन
मैं हूँ

अरे आप

अब यहाँ आये हैं

कौन से मंत्रों का करने जाप

मजबूर इंसानों में भगवान बेच रहें हैं

आप मेरा नहीं

सृष्टि करता का अपमान कर रहें हैं

धर्म गुरु

मुझे स्वर्ग नहीं ,नर्क जाना हैं

स्वर्ग पहले ही बेच चुके हों

कल आप को भी मेरे पास आना हैं

वे हसे ओर बोले

लगता हैं मौत से घबडा गये हों

अपने साथ साथ

अपने उत्ताराधिकारी को भ्रष्ट कर रहे हों

अरे उसे अपना कल बनाना हैं

आज तक तुम थे,कलउसे मेरी शरण में आना हैं



मेरे बेटे

जो अब आ रहे हैं

वो मानते हैं

खुद को दुनिया का भगवान

करने दो नतमस्तक होकर मुझे इनका सम्मान

बरना

कर देगें कोड़ों के मारो से छलनी

मेरा जिस्म

बच्चे इनसे बचना

हों सके तो

नतमस्तक ही रहना



ओह

आइये राजनीतिज्ञ

लगता मेरे अंत समय से नहीं थे आप अनभिग्य

हमने सुना हैं

हमारे दुःख तकलीफो का करते करते बयान

आप हों गए हैं अति विशिष्ट इंसान

अब हमारे पास क्यूँ आये हैं श्रीमान

क्या कहाँ

मेरी मौत पर आँसू बहाना हैं

गरीबो के सच्चे रहनुमा हों

इस बात का एहसास ,मेरी औलाद को कराना हैं



आप भी आ गये मेरे हमराज

क्या कह कर पुकारु

लेखक

चिन्तक

पत्रकार

या फिर कलाकार

तुमने तो देखा हैं

होते हुए मुझ पर अत्याचार

शोषित पीडित

आप का प्रिय पात्र रहा हैं

शायद मेरे जैसा इंसान

आप की जीविका का आधार रहा हैं

आपने हमारे दुखो को ऐसा दर्शाया

जिसे देख मेरा शोषक भी थर्राया

पदकों फूलों उपहारों से

तुमने उसी से अपना सम्मान कराया

यह सोच मैं भी शरमाया

जिसे मैने भोगा था

उसकी इतनी अच्छी अभिव्यक्ति

मैं क्यूँ नहीं कर पाया

मैं समझा था तुम्हे अपना हमराही

पर देख रहा हूँ

जाने अनजाने

तुम भी बन गये हों

मेरे आहों के व्यापारी



मेरे बाद मेरा बेटा

बन जाएगा मेरी वसीयत

ओर तुम लोग

इस वसीयत के उत्ताधिकारी
vikram

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