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शनिवार, 29 अगस्त 2009

होती है जब भी शाम सखे....


होती है जब भी शाम सखे
तरु पातों को करके कंचन
सरिता को दे सिन्दूरी तन
जाने से पहले करता है,रवि धरती का ऋँगार सखे
होती है जब भी शाम सखे
नीडो मे सबको पहुचाता
रवि अस्ताचल को हैं जाता
पश्चिम की गोदी मे छुप कर वह करता हैं ,विश्राँम सखे
होती है जब भी शाम सखे
मेरी आशा की श्रांत किरण
लौटी हैं दुःख का किये वरण
आकर दृग बिन्दु कपोलों पर, रक्तिम होते हर शाम सखे
होती है जब भी शाम सखे
vikram

13 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी आशा की श्रांत किरण
    लौटी हैं दुःख का किये वरण
    आकर दृग बिन्दु कपोलों पर,
    रक्तिम होते हर शाम सखे
    होती है जब भी शाम सखे

    बहुत सुन्दर !

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  2. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ........बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी आशा की श्रांत किरण
    लौटी हैं दुःख का किये वरण
    अभिव्यक्ति शानदार

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छा लगा आपका यह लिखा हुआ शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  5. मेरी आशा की श्रांत किरण
    लौटी हैं दुःख का किये वरण
    आकर दृग बिन्दु कपोलों पर, रक्तिम होते हर शाम सखे

    वाह विक्रम भाई। मजा आ गया पढ़कर।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही भावनात्मक रचना..विक्रम जी
    प्रकृति के साथ अच्छा तादात्म्य.
    पूनम

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही सुंदर रचना प्रकृति को समेटे हुए ।
    श्रृंगार होना चाहिये और विश्राम ।

    जवाब देंहटाएं
  8. Kya baat hai Boss. Bahut sundar .. And I'm not writing this because you've been on my blog. I really like it. Congrats.

    जवाब देंहटाएं
  9. मेरी आशा की श्रांत किरण
    लौटी हैं दुःख का किये वरण
    आकर दृग बिन्दु कपोलों पर,
    रक्तिम होते हर शाम सखे
    होती है जब भी शाम सखे
    बहुत ही भावमय अभिव्यक्ति के लिये बधाई और शुभकामनायें आभार्

    जवाब देंहटाएं
  10. बहूत ही सुन्दर शब्द संयोजन ....... सुन्दर रचना है .... बधाई विक्रम जी

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